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योगी सुख-दुःख की कल्पना से परे होता है क्योंकि वह यथार्थ स्वरूप का वेत्ता होता है । उसे सुख-दुःख के होने पर भी उनकी अनुभूति नहीं होती । आर्चाय कहते हैं कि यदि यह योग रूपी कल्पवृक्ष उन्मत हाथी से अथवा मिथ्याज्ञानरूपी अग्नि के द्वारा नष्ट नहीं किया जाता है तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि योगी निश्चितरूप से ही स्वाभीष्ट मुक्तिपद को प्राप्त कर लेता है कारण कि उत्तम सुख वही है जो योग से उत्पन्न हुआ है, जो काम एवं विषय वासना की पीड़ा से विरहित, शान्त, निराकुल और स्थिर है तथा जिसमें जन्म, जरा, एवं मृत्यु का विनाश हो जाता है ।" इसी से योग विषय वासना से उत्पन्न दुःख से रहित माना गया है ।
जैनागमों में योग शब्द :
भारतीय दर्शन परम्परा में जैन दर्शन और उसमें भी योग, ध्यान साधना को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है। यहां 'योग' शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । यथा संयम, निर्जरा, संवर आदि अर्थों में . भी योग शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के अर्थ में भी यह प्रयुक्त होता है । "
बन्दुके परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
योगतो हि लभते विबन्धनं । योगतोऽपि किलमुच्यते नरः ॥ योगवर्त्मविषमं गुरोगिराः । बोध्यते तदखिलं मुमुक्षुणाम् ॥
१. दे० पञ्चविंशति १०.२६
२.
वही, १०.२१
३.
वही, १०.३५
निरस्तमन्मथातङकम् योगजं सुखमुत्तमम् ।
शमात्मकं स्थिरं स्वस्थं जन्ममृत्युजरापहम् ॥ यो० प्रा० ६.११, पृ० २०० (क) सावज्जं जोगं पच्चवखामि ।
(ख) समाणं जोगणं ।
(ग) जोगहीणं । आवश्यकसूत्र, पृ० २०. २५
४.
५.
६.
वत्तीसार जोगसंगेहिं । समवांगसूत्र, सूत्र ३२ वां
तिविहे जोगे पणत्ते जं जहा- मणजोगे, वइजोगे, कायजोगे । स्था० १.३.६
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