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________________ भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु ग्रन्थों से भी होती है। भगवान् बुद्ध स्वयं अपने शिष्यों को भी बार-बार ध्यान करने की समाधिस्थ होने की प्रेरणा देते हैं, वे कहते है कि- एतानि भिक्खवे, रुक्ख नूलानि, एतानि सु गारानि, झायथ, भिक्खवे, मा पमादत्थ मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुत्थ । अयं वो अम्हाकं अनुसासनीति ।। यही उनका उपदेश था कि 'भिक्षुओ ! ध्यान करो, ध्यान करने में प्रमाद मत करो।' वे सदैव समाधि या ध्यान की प्रशंसा करते थे। वे कहते थे कि जो ध्यानयोगी है उनका मन स्वस्थ एव प्रसन्न रहता है। उसे समाधि सिद्ध होती है, जो सम्यक् समाधिस्थ हैं उसे ही ध्यान लाभ होता है। ध्यान में लीन होने से धर्म प्राप्त होता है, जिससे परमपद को प्राप्ति होती है, जो दुर्लभ, शान्त, अजर, अमर और अक्षय है।' ध्यानयोग से समाहित चित्त से युक्त भिक्षु अनेक सिद्धियों को प्राप्त करता है तथा उसका विनिपात भी कभी नहीं होता, वह सम्बोधि परायण होकर निर्वाणगामी होता है। इस प्रकार बौद्ध धर्म में भी योगसाधना का अत्यन्त महत्त्व है। वह निर्वाणलाभ का सफल मार्ग है। कोई भी ऐसा बौद्ध सम्प्रदाय अवशिष्ट नहीं है जो ध्यानयोग की महत्ता पर प्रकाश न डालता हो। इसमें भी कोई सन्देह नहीं रह जाता कि सत्त्व योग के द्वारा ही विशेष बन्धन को प्राप्त करता है और योग ही वह निमित्त है, जिससे प्राणी भवबन्धन से मुक्त हो जाता है। अतः योगमार्ग विषम है जैसे कहा भी है कि - १. दे० सं०नि० २. १३३, पृ० १२१ तथा तुलना कीजिए-एतानि वो भिक्षवोऽ-रण्यायतनानि वृक्षमूलानि शून्यागाराणि पर्वतकन्दरगिरिगहापलाल-मुजानि अभ्वकाशश्मशानवनप्रस्थप्रान्तानि शयनासनानि अध्यावरत । ध्यायत, भिक्षवो मा प्रमाद्यत । मा पश्चात् विप्रतिसारिणो भविष्यथ । इदमनुशासनम् । अर्थविनि०, पृ० ६७ २. दे० बु०च०, १२. १०५ ३. दे० वही, १२. १०६ . . Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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