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(xxxvii) है । साधक छठे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक की श्रेणी को कैसे पार करता है ? इस पर भी विशेषरूप से यहाँ प्रकाश डाला गया है।
पांचवे अध्याय योगबिन्दु और तत्त्वविश्लेषण में जैन दृष्टि से आत्मा का स्वरूप उसका कर्तृत्व, भोक्तृत्व तत्त्वज्ञत्व तथा उसके सर्वज्ञत्व पर जैन दष्टि से समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त यहां आठकर्मों का वर्गीकरण कर जीव के साथ उनके सम्बन्ध का भी विवेचन किया गया है। इसके बाद कर्म उनका कर्तुत्व-अकर्तृत्व और कर्म एवं लेश्या एवं उनका परस्पर सम्बन्ध आदि विषयों को चर्चा करते हुए लेश्या के भेद एवं महत्व पर प्रकाश डाला गया है । अन्त में योग और उसके फल>ज्ञान तथा मुक्ति मार्ग : सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र पर चर्चा को गई है। अनन्तर बन्ध और उसके कारणों का विवेचन करके निर्वाण के स्वरूप को समझाया गया है। इस प्रकार योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैनयोग विषयक तत्त्वों का विश्लेषण एवं समीक्षण करने का प्रयास किया है।
इस शोध प्रबन्ध के सन्दर्भ मैं सर्वप्रथम में पूज्य गुरुदेव परमकृपाल, उत्तरभारतीय प्रवर्तक श्री भण्डारी पद्मचन्द्र जी महाराज एवं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री अमर मुनि जी महाराज का अतीव कृतज्ञ हूँ और उनकी अपार कृपादृष्टि एवं शुभ-आशीर्वादों को इसका मूल स्रोत मानता हूं। आपका सम्यक् निर्देशन स्नेह एवं प्रेरणा निरन्तर मिलती रही है । आपके असीम कृपाभाव को शब्दों की परिसीमित परिधि में नही बांधा जा सकता। आपका मैं चिरऋणी हैं। आपके चरणों में आते ही आपने मुझे विद्याध्ययन में प्रवत्त किया और यहां तक पहुंचाया है। अतः यह सब आपकी कृपा का प्रसाद है । जो इस रूप में प्रकट हुआ है।
श्रद्धेय प्रवर विद्वरत्न श्री रत्न मुनि जी महाराज का भी मैं कृतज्ञ हूं। जो मेरे विद्या व्यासंग मैं मुझे प्रारम्भ से ही सहयोग देते रहे हैं और इस शोध कार्य में भी कई ग्रंथ उपलब्ध कराए हैं।
परम श्रद्धेय उपप्रवर्तक तपस्वी श्री सुदर्शन मुनि जी महाराज एवं उपप्रवर्तक परमादरणीय श्री प्रेमसुख जी महाराज का शुभ आशीर्वाद तथा उदार सहयोग मुझे समय-समय पर मिलता रहा है। अतः इनका भी मैं आभारी हूं। महासती साध्वी रत्न श्री पवनकुमारी जी महाराज
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