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(xxxvi) अर्थात् 'योगबिन्दु' में सभी योग शास्त्रों में जो मूलगामी अविरोधी वस्तु है उसी की स्थापना की गयी है। इसी कारण मैंने 'योगबिन्दु' को अपने शोध का विषय चुना है।
इसमें योग की परम्पराओं के विचारों को दृष्टि में रखते हुए योगबिन्दु' में आगत योग विषयक तत्त्वों का सम्यक् अध्ययन किया गया है। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर प्रकृत प्रबन्ध को भी पांच अध्यायों में वर्गीकृत किया गया है।
प्रथम अध्याय भारतीयवाङमय में योग साधना और योगबिन्दु में योग का माहात्म्य, योग शब्द का अर्थ विश्लेषण करते हुए उसकी व्याख्या विभिन्न मतों के आधार पर की गई है। फिर योग विषयक वाङमय विशेषकर वैदिक, बौद्ध एवं जैन योग परक ग्रन्थों में योग को महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। अन्त में 'योगबिन्दु' के सन्दर्भ में योग का समीक्षण किया गया है।
दूसरे अध्याय में योगबिन्दु के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि के प्रामाणिक जीवनवृत्त को प्रस्तुत किया गया है। युक्ति युक्त तथ्यों के द्वारा उनका समय निर्धारण करते हुए सूरि के अनुपम और गौरवशाली व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है, इसमें विशेषकर उनका साघुत्व, समाजसेवा, गुरुभक्ति, साहित्यिकदेन, उनकी शैली और दूसरे विद्वानों के प्रति उनकी उदारता आदि गुणों को प्रस्तुत किया गया है। इसी में आचार्य हरिभद्रसूरि के कृतित्व का भी उल्लेख करते हुए उनको बहुमान्य प्रमुख-प्रमुख रचनाओं का समुचित परिचय आदि भी दिया गया है।
योगबिन्दु की विषय वस्तु नामक तीसरे अध्याय में योग के अधिकारी एवं अनधिकारी की चर्चा हुई है। योगबिन्दु में वर्णित योग भूमियों-अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय का यथोचित ढंग से वर्णन किया गया है और पुनः योग के विकास क्रम की विस्तार से चर्चा की गई है।
योगः ध्यान और उसके भेद नामक चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में ध्यान की महिमा का सम्यक् प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद योग के सन्दर्भ में गुणस्थानों का भी क्या महत्त्व है ? इसका विवेचन किया गया
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