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(xxxv), पूर्ण ग्रन्थ योगबिन्दु का नाम सुझाया। अपनी भावना को लेकर जब मैंने स्वनाम धन्य डा. गोपिकामोहन भट्टाचार्य, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र से परामर्श किया तो उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक इस पर शोध कार्य करने की अपनी स्वीकृति प्रदान की। - आचार्य हरिभद्रसूरि जैनदर्शन के ही नहीं भारतीय वाङमय के उद्भट विद्वान् एवं योगविद्या के प्रौढ़ ज्ञाता थे। उनके विषय में यह भी स्पष्ट है कि आर्हत परम्परा में आचार्य हरिभद्रसूरि ही एक ऐसे. दिव्य जीवन वैभव को लेकर उद्भाषित हुए जो अनेक दृष्टियों से अनुपम और अद्भुत थे। वे प्रारम्भ में चित्रकूट या चितौड़ के राजपुरोहित पद पर सुशोभित थे। एक विशेष घटना से उनकी आस्था जैनधर्म के साथ सम्पृक्त हुई। उनका अथाह ज्ञान अन्तर्मुखी हुआ और वे संसार-वासना से विरक्त होकर श्रमण जीवन में दीक्षित हो गए। शीघ्र ही अपने सतत परिश्रम एवं क्षयोपशमजन्य प्रतिमा के बल से उन्होंने जैनधर्मदर्शन पर असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया। आगे चलकर उन्होने अल्पसमय में ही ममक्षजनों के कल्याण हेतु अनेक ग्रन्थों की रचना की। जो आगम व्याख्या और धर्मदर्शन आदि अनेक रूपों में प्रकाश में आए हैं। विद्वानों की दृष्टि से आपका समय सन् ७५७ से ८२७ तक माना जाता है।
जैन वाङमय के क्षेत्र में उनकी एक अनुपम देन है-उनका जैन योग साहित्य । आचार्य हरिभद्रसूरि की यह प्रमुख विशेषता है कि उन्होंने अपनी उच्च-एवं उदार दृष्टि से स्व-पर पन्थ का भेद किए बिना प्रत्येक से गुण ग्रहण किया है। उनकी यह दृष्टि उनके योग साहित्य में स्पष्ट परिलक्षित होती है। हरिभद्रसूरि ने योगपरक चार रचनाएं लिखी हैं इनमें योगबिन्दु महत्वपूर्ण और असाधारण रचना है । ____ आचार्य हरिभद्रसूरि का यह ग्रन्थ अनेक योग परम्पराओं में प्रतिष्ठित ग्रन्थों के पूर्ण और यथार्थ अवगाहन के फल स्वरूप प्रणीत हुआ है। इसमें किसी रूढ़ परिभाषा अथवा शैली का आश्रय न लेकर एक नतन शैली में सभी योग परम्पराओं के योग विषयक मन्तव्यों में एकता और अविरोध की स्थापना की गई है जैसा कि स्वयं ने कहा भी है
सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः । सन्नीत्यास्थापकं चैव मध्यस्थांस्तद्विदः प्रति । योगबिन्दु, श्लोक २
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