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________________ (xxvii) की संज्ञा दी गई है। ऐमें जीवों की धर्म-क्रिया केवल बाह्य-आडम्बर मात्र होतो है जैसे श्रीमद रायचंद्र ने आत्म-सिद्धि में कहा भी है। ___ "बाह्यक्रिया मां राचता अन्तर्भेद न कांई" भवाभिनन्दी की धर्मक्रिया लोकानुरंजन तथा बाह्य-आडंबररूप होन उद्देश्य से प्रेरित होने पर अंततः पापमय सिद्ध होती है। भवाभिनन्दो को यह धर्म-क्रिया लोकपक्ति कहलातो है । और दुःख का कारण बनतो है। फिर भी अनाभागिक मिय्यात्वी को लोकपक्ति रूप धम-क्रिया इतनो अनथकर नहीं होतो पर होन उद्देश्य को लेकर अभि होत मिथ्यात्वा को धर्म-क्रिया अनर्थकर सिद्ध होती है। - आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग-बिन्दु में चरम-पुद्गल परावर्तन को अतिमहत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। चरम पुद्गल परावर्तन में स्थित जीव ही उनको दृष्टि में योग का अधिकारी है। इनके पूर्ववर्ती परावर्तनों में न ही वह योग सम्मुख होता है न ही वह यथार्थ धर्म-क्रिया के आचरण से युक्त हो सकता है।59 कारण उस समय उसको परिणामदशा रूप योग्यता ऐसी नहीं होतो कि वह योग सम्मुख हो सके। जैसे घृत, दधि इत्यादि बनने रूम योग्यता तण में समाहित होते हए भी जब तक वह तुग अवस्था में है तब तक वृत आदि प्राप्त नहीं हो सकते । आचाय श्रा ने स्वयं इस तथ्य की पुष्टि आचार्य गोपेन्द्र का तत् सम्बन्धी मन प्रकट करके की है। संकल्पपूर्ण योग मार्ग पर गतिमान् साधक के लिए हरिभद्रसूरि ने समर्पण भाव को भी पूर्व सेवा, देव-पूजन इत्यादि के रूप में यथोचित महत्ता प्रदान की है। गुरु तथा देव के प्रति निष्ठा व भाव आपरित हृदय, उनके दर्शन-पूजन तथा भक्ति व भक्तिमार्ग के प्रति रूचि । अद्वेष भावना पूर्वसेवा कहलाती हैं। गुरु का अर्थ एक विशेष व्यक्ति मात्र न लेकर विशद दृष्टिकोण से माता-पिता, कलाचार्य, वृद्ध पुरुष, धर्मोपदेष्टा इत्यादि सत्पुरुषों को गुरु रूप स्वीकार किया है। और इनके प्रति विनययक्त व्यवहार समादरभाव, यथा समय वंदन-पूजन का विधान किया है । देव-पूजा के सम्बन्ध में सभी देवों की समादर भाव से अथवा किसी देवविशेष का अन्य देवों के प्रति अद्वेषभाव रखते हुए पूजन का विधान है। विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यह पूर्व सेवा भी चरम-पुद्गल परा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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