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(xxviii) वर्तन में ही योगांगरूप है अन्यथा पूर्ववर्ती परावर्तनों में वह सांसारिक आसक्ति से युक्त होने के कारण योगांगरूप नहीं होती।
दान धर्म का प्रवेश-द्वार है। इसके महत्व को सिद्ध करते हुए आचार्य श्री ने सदाचरित पुरुष के लिए दान को भी योग के अन्तर्गत स्वीकृत करते हुए व्रतों, साधु-संत, पीडित, दुःखीजन को पात्र बतलाया है। हेम चन्द्राचार्य रचित योगशास्त्र में वर्णित मार्गानुसारी को तरह यहां पर सदाचरण रूप विशेष बातों का उल्लेख कर हरिभद्रसूरि ने धर्म के प्रति अपनी व्यवहारिक व समग्रतापूर्ण दृष्टि का परिचय दिया है। साथ ही चन्द्रायाण, कृच्छ, भृत्युध्व पापसूदन इत्यादि पाप-नाशक तप का भी उल्लेख किया है।
सर्वज्ञता की चर्चा करते हुए सांख्य एवं अन्य दार्शनिकों के मत का निरसन करते हुए युक्ति-युक्त सर्वज्ञता की सिद्धि करते हुए इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि चेतना स्वयं ज्ञानमय है तथा चेतना और ज्ञान अभिन्न है जैसे अग्नि और उसकी उष्णता । अतः प्रत्येक अवस्था में चेतना ज्ञान-युक्त होती है । सांसारिक-अवस्था में कर्मावरण की तरतमतानुसार ज्ञान का प्रकटीकरण न्यूनाधिक हो सकता है पर सर्वथा अभाव असम्भव है । मुक्तावस्था सम्पूर्ण कर्म-क्षय की अवस्था है। अतः मुक्तात्मा सर्वज्ञता को उपलब्ध होती है।
अन्त में हरिभद्रसूरि का यह कथन अत्यन्त दृष्टव्य है कि प्रज्ञावान् पुरुष इस ग्रन्थ के मननीय तथ्यों पर चिंतनात्मक आलोचना कर स्वयं को इनमें से जो योग्य व सारभत लगे उसे जीवन में समुचित स्थान प्रदान कर । साथ ही वास्तविक महानता द्योतक अपनी लघुता प्रस्तुत करते हुए कहते है कि योग के महासागर से वह केवल योगबिन्दु रूप बूंद ही निकालकर समक्ष रख रहे है। इस महान् एवं प्रशस्त कार्य से जो पुण्य निष्पत्ति, शुभ संपत्ति अर्जित की है उसके हकदार स्वयं ही न होकर समस्त जीवों को भवरोग के संताप से विमुक्त कराने में सहायक बने ऐसी मंगल-भावना के द्वारा उन्होंने करुणा का शिखर-स्पर्श करने का अत्यन्त शुभ प्रयत्न किया है।
श्री सुव्रत मुनि जी पंजाब जैन स्थानकवासो परम्परा, में द्वितीय मुनि हैं जिन्होंने आचार्य हरिभद्रसूरि कृत 'योगबिन्दु पर समीक्षात्मक
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