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योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण
259 आचार्यों ने लेश्या बतलाया है। उनका कहना है कि काले-नीले इत्यादि द्रव्यों के सान्निध्य से उत्पन्न हुए जीव का जा परिणाम है, वही लेश्या है। जीव जिसके द्वारा अपने को पुण्य-पाप में लिप्त करे उसा का नाम लेश्या बतलाया गया है। आचार्य नमिचन्द्र चक्रवर्ती गोम्मट्टसार में लेश्या को कषाय के उदय से रंगी हुई मन-वचन-काय की प्रवृत्ति मानते हैं। इस तरह लेश्या योग से मिश्रित कषाय की प्रवृति मात्र है।
लेश्या का कोई क्रम नहीं, यह शाश्वत भाव है। यह लेश्या लोकालोक, लोकान्तालोक दृष्टि, ज्ञान एव कर्म आदि की तरह अनादि काल से विद्यमान है और अनन्तकाल तक रहेगी।
. भेद-दष्टि से यह लेश्या द्रव्य और भाव इन दो रूपों में उपलब्ध होती है। श्लेष की तरह इसे तीन भागों में भो बांटा गया हैं-वर्णबन्ध, कर्मबन्ध और स्थितिबन्ध । वर्णभद से लेश्या-कृष्ण, नील, कापोत, तेजम, पदम और शक्ल छ प्रकार की बतलायी गई है। इनमें से प्रथम तीन अशुभ और अपवित्र होती हैं तो शेष तीन-पात, पद्म और १. योगपरिणामो लेश्या । स्थानांगसूत्र १.५१ टीका तथा तथा दे।
भग० १,२,१८ पर टोका २. कृष्णादिद्रव्यसान्निध्यजनितो जीवपणामोरे दया । भग० १२.३.५
आत्मनः सम्बन्धनी कर्मणो योग्यलेश्याकृष्णादिकार्मणो वा लेश्या । वही, १४.६.१ पर टीका लिम्पइ अम्पो कीरइ एदीए णिय अपुण्णापुण्णं च । जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुण जाणययवखादा ॥ गोम्मट्टसार जीव काण्ड,
गा० ४८६ ४. जोगपउत्तीलेस्सा कसायउदयाण रंजिया होई । वही, गा० ४६० तथा मिला०-कृष्णायोदयतो योगप्रवृत्तिरूप दर्शिता।
लेण्याजीवस्सकृष्णादि ॥ तत्त्वार्थश्लोक वा० २,६.११ -
कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या ॥ तत्त्वार्थवा० २.६.८ तथा दे० तत्त्वार्थवृत्ति २.६ पर व्याख्या ५. द्विविधालेश्या-द्रव्यलेश्या भावलेश्याभेदात् ।। तत्त्वार्थवृत्ति, २.६ ६. श्लेष इव वण बन्धस्य कर्मबन्धस्थिति त्रिविधस्त्रयः । स्थानांगसूत्र १.५१
पर टीका ७. . साषडविधा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या तेजोलेश्या, पद्मले श्या,
शुक्ललेश्या । तत्त्वार्थवृत्ति, २.६ तथा उत्तराध्ययनसूत्र, ३४.३
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