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________________ 260 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन शुक्ल, शुभ और प्रशस्त बतलायी गई हैं। इनके वर्ण भी छः होते हैंकाला, नीला, लाल, काला और मिश्रित जैसा लाल, पीला और सफेद । द्रव्य लेश्या पुद्गल विपाक की शरीर नामकर्म के उदय से होती है। यह अजीव पदार्थ अनन्त प्रदेशी, अष्ट स्पर्शी पुद्गल है। इसकी अनन्त वर्गणाएं होती हैं। इसके द्रव्याथिक और प्रादेशिक स्थान अनन्त हैं। यह परस्पर में द्विविध परिणामी-अपरिणामी भी होती है । द्रव्यलेश्या आत्मगत और अजीवोदय निष्पन्न है। गरु-लघु अज्ञेय है। प्रथम तीन अमनोज्ञ रसवाली और बाद की तीनों मनोज्ञ रसवाली हैं। शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध स्पर्शवाली, अविशुद्ध-विशुद्ध वर्णवाली, स्थूल द्रव्य कषाय मन भाषा से सूक्ष्म-औदारिक शरीर पुद्गलों एवं शब्द पुद्गलों से तैजस एवं वैक्रियिक शरीर भी सूक्ष्म है। इन्द्रियग्राह्य योगात्मा के समकालीन योगग्राह्य, नौकर्म पुदगल-रूप पाप-पुण्य बन्ध से परे प्रायोगिक पौदगलिक अज्ञान संस्थान और पारिणामि क-भाव वाली द्रव्य लेश्या होता है। इस तरह यह आत्म भावों में ग्रहीत नहीं होती। यह सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से निर्मित आंगिक संरचना है। यह हमारे मनोभावों और तज्जनित कर्मों की सापेक्षरूप में कारण अथवा कार्य बनती है। ___ मोहनीयकर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम और क्षय से जो नीव के प्रदेशों की चंचलता होती है, वही भावलेदया है । कषायोदय से रजित योगप्रवृत्तिरूप भावलेश्या औदयिकी कही गयी है। यह जीव परिणामी लेश्या वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित होती है।' यह अगुरुलघु १. उत्तराध्ययनसूत्र. गा७ ५६.५७ २, वही, गा० ४-६ ३. दे० तत्त्वार्थवार्तिक, २.६ ४. दे० (वाठिया) लेश्या कोश ५. वही ६. तत्त्वार्थवार्तिक, २.६ : भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदायिकीत्युच्यते । ७. भावलेस्सं पडुच्च अदण्णा अरसा, अगंधा, अफासा, एवं जाव सुक्कलेस्सा। भगवती, सूत्र १२.३.५ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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