________________
258
योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
वैसा-वैसा ही वर्ण और पुद्गल का आकर्षण होता जाता है। मन के विचारों में जो चंचल लहरियां होती हैं वे पुद्गलों से सम्मिश्रित होती हैं। इस कारण वैचारिक समूह पुद्गलरूप होता है। जैसे स्फटिक स्वस्वरूप से उज्ज्वल होता है परन्तु उसके समीप में जिस वर्ण की वस्तु रख दी जाती है, वह स्फटिक भी उसी वर्ण का प्रतिभाषित होने लगता है। ऐसे ही आत्मा स्फटिक के समान उज्ज्वल और निर्मल है। उसके पास जिस वर्ण के परिणाम होगें वह आत्मा भी उसी वर्ण वाला प्रतिभाषित होने लगेगा। इस प्रकार लेश्या कर्मगत आत्मपरिणामी है ।
लेश्या कर्मश्लेष के कारणभूत शुभाशुभ परिणाम वाली होने पर भी आचार्यों ने उसको भिन्न-भिन्न अर्थों-अध्यवसाय', अन्तःकरण की वृत्ति, तेज दीप्ति', ज्योति, किरण, देहसौन्दर्य', ज्वाला', सुख एवं वर्णमें प्रयोग किया है। कुछ एक आधुनिक विद्वान् लेश्या का अर्थ मनोवृत्ति, विचार अथवा तरंग भी करते हैं। लेश्या 'लिश्' धातु में यत् और टाप् (स्त्रो लिंग) प्रत्यय लगकर बना हैं, जिसका मूल अर्थजाना, सरकना, छोटा होना और पकड़ना आदि है।
जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होता है वह लेश्या-लिश्यतेश्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनयेति लेश्या । योग परिणाम को भी
१-२. दे. अभिधान राजेन्द्र, पृ० ६७४ ३-४. दे० पाइअसद्दमहण्णवो, पृ० ६०५ ५. संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुम, पृ० ६६७ ६-७. पाइसद्दमहण्णवो, पृ० ६०५ ८. वही, पृ० ७२६ ६. दे० भगवतीसूत्र, १४.६.१०-१२ १०. वही, १४.६.१०-१२ ११. दे. (मुनि सुशील कुमार), जैनधर्म, पृ० १२२ १२. (मैकडानल), संस्कृत अंग्रेजी कोष १३. (मोनियर विलियम) संस्कृत-अंग्रेजी कोष १४. दे० प्रशमरति, भाग-१, परिशिष्ट, पृ० २२५ पर उद्धृत तथा
मिला०-स्थानाङ गसूत्र, ७५ पर टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org