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________________ योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण 257 कर्म और आत्मा का यह सम्बन्ध अनादि और सान्त है, क्योंकि इन दोनों के आदि का तो पता नहीं किन्तु इनका सम्बन्ध विच्छेद जरूर होता है। आत्मा उग्र, तप, त्याग, वैराग्य, संयम, ज्ञान-दर्शन ओर चारित्र को आराधना से उपलब्ध प्रबल ज्ञानशक्ति को परास्त कर देता है। अथवा आत्मा की प्रबल शक्ति के सामने कर्मशक्ति एक क्षण भी स्थिर नहीं रह पाती। यदि कर्मशक्ति पर आत्मशक्ति की जोत न मानी जाए तब तो तप त्यागमय साधना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। कर्म का कर्तृत्व और अकर्तृत्व __— कर्म के बिना जीव कर्तृत्व रहित है, ठीक वैसे ही जैसे मदिरा जब तक बोतल में बन्द होती है, उसका कोई प्रभाव नहीं होता, किन्तु जैसे ही उसका प्रयोग किया जाता है, तो फिर उसका प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित होने लगता है। ऐसे ही कर्म में कर्तृत्व अथवा अकर्तृत्व कुछ भी नहीं होता है। वास्तव में तो आत्मा कथंचिद् कर्ता और कथंचित् अकर्ता है। (ग) कर्म एवं लेश्या - लेश्या का कर्मों के साथ अपरिहार्य सम्बन्ध है। संसार में जितने भी प्राणी दृष्टिगोचर होते हैं, वे सभी रूप-रंग और आचार-विचारों में एक जैसे नहीं हैं। इसका कारण कर्म-वैचित्य को हो माना गया है। इस कर्मवैचित्र्य को केवल जैन-बौद्ध ही स्वीकार नहीं करते, बल्कि हिन्दू-धर्म में भी लेश्यागत कर्म-वैचित्र्य को बहुल चर्चा की गई है। कर्मगत आत्म परिणामी लेश्मा प्राणो जैसे-जैसे चिन्तन मनन अथवा विचार करता है, उनका १. खवित्तापुबकम्माइं संजमेण तवेण य । . सयदुक्खपहीणट्ठा पक्कमति महेषिणो ॥ उत्तरा० २५.४५ २. अभिधर्मकोश, २.५९-६०, पर भाष्य ३. षड्जीववर्णा परमं प्रमाणं कृष्णः धूम्रो नील यथास्यमध्यम् ।। रक्तं पुनः सहयतरं सुखं तु हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम् ॥ महाभारत, शान्ति पर्व, २८०.३३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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