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________________ 256 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार मूर्त कर्म से कथंचित् अभिन्न होने के कारण जीव भी कथंचित् मूर्त हो जाता है । इसलिए अमूर्त आत्मा से मूर्तकर्म का सम्बन्ध होने में कोई भी बाधा अथवा आपत्ति नहीं है। जैनदर्शन के अनेकान्तवाद सिद्धान्त के अनुसार संसारी आत्मा चेतन तथा मूर्तामूर्त है । अतः उस पर मूर्त कर्म का प्रमुख होना स्वाभाविक है ।। आत्मा और कर्म का अनादि सान्त सम्बन्ध कर्ष प्रवाह अनादिकालीन होने से संसारी जीव अनादिकाल से कर्मपरमाणओं से बन्धा हुआ चला आ रहा है। जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की बीजांकुर-सन्तति अनादि है वैसे ही देह से कर्म और कर्म से देह सन्तति अनादि है। इसी प्रकार आत्मा और कर्म का सम्बन्ध भी है। जिनका परस्पर कार्य-कारण भाव होता है, उनकी सन्तति भी अनादि होतो है। इसे जेन आगर्मों में बलाका और अण्डे से समझाया गया है, जैसे अण्डे से बलाका ओर बलाका से अण्डा उत्पन्न होता हे कारण कि इनका सम्बन्ध अनादि है। इसी प्रकार आत्मा और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि स्वीकार किया गया है। १. मुनेणामुत्तिमतो उवयाताणुग्गहा कधं होज्ज़ । जरियाणादीगं मदिरापाणोसधादीहि ॥ गणधरवाद, गा० १६३७-३८ तथा मिला-जीवपरिपाकहेउ कम्मता पोग्गलापरिणमंति ।। पोग्गलकम्मनिमित्तं जीवो वि तहेव परिणमई ॥ ,प्रवचन सारवृत्ति, ४५५ जम्हाकम्मस्म फलं विसयं फासेहिं मुंजदे-णिययं । जीवे सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि । मुनोकासदिमुत्तं मुतो मुतेण बन्धमणु हवदि । जीवो मुसोविरहिदोगहिदत तेहिं उग्गहदि ॥ पंचास्तिकाय, गा० १४१-४२ २. देवस्पा शभागोधपत्तिण यसोत्यिणणविरुद्धमितं । सव्वाभावे विणलो घेपति किं खरविसाणस्य ॥ गगधरवाद, गा० १६३६ ३. जहा य अण्डप्पभा व लागा, अण्डंबलागप्पभवंजहाय । उत्तरा०सू०, अ० ३२.६ ४. चपाऽनादिः सजीवात्मा, यथाऽनादिश्च पुद्गलः । द्वयो वन्धोऽप्पनादि स्यात् सम्बन्धो जीवकर्मणोः । पंचाध्यायी, २.३५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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