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योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण
अष्ट मूल कर्म
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय को मिलाकर ये आठ मूल कर्म होते हैं ।' जो कर्म आत्मा के ज्ञानगुण और दर्शन गुण को आवृत अथवा ढक लेते हैं । उन्हें क्रमशः ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । ऐसे ही जिस कर्म से आत्मा सुख-दुःख की अनुभूति करता है, उसे वेदनीय कर्म कहत हैं । जिस कर्म से आत्मा में सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति (मोह) उत्पन्न होती है वह मोहनीय कर्म है । आत्मा विभिन्न योनियों में रहने की आयु का बन्ध जिससे करता है, उसे ही आयुः कर्म विशेष कहते हैं । जिस कर्म से आत्मा शुभ-अशुभ अथवा मान अपमान को प्राप्त करता है । वह नामकर्म तथा जिसस आत्मा ऊंच-नीच कुल अथवा गोत्र में जन्म लेता है उसे गोत्रकर्म कहत हैं । आत्मा के दान-भोग आदि कार्यों में जो बाधा अथवा रुकावट उत्पन्न करता है, उसे ही अन्तरायकर्म कहते हैं |
कर्म यद्यपि पुद्गलात्मक होने से जड़ और मूर्त है; फिर भी चेतन आत्मा के सान्निध्य में आने से जैसे साइकिल आदि वाहन मनुष्य के सम्पर्क से गतिशील होते हैं वैसे ही ये चेतन की भांति कार्य करते हैं । मूर्तकर्म का अमूर्त आत्मा से सम्बन्ध
जैसे मूर्त घट का अमूर्त आकाश से सम्बन्ध होता है वैसे ही मूर्तकर्म का अमूर्त आत्मा से संयोग होता है किन्तु आत्मा एकान्तरूप से अमूर्त नहीं, वह मूर्त भी है । जैसे अग्नि और लोहे का सम्बन्ध होने पर लोहा अग्निरूप हो जाता है वैसे ही संसारी जीव तथा कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध होने के कारण जीव भी कर्म के परिणामरूप हो जाता है । अतः वह उस रूप में मूर्त भी है ।
१. नाणस्सावरणिज्जं दंसणावरणं तहा ।
वेयाणिज्झं तहा मोहं, आउवम्मं तव य ॥
नामकम्मं च गोयं च अन्तरायं तहेव य ।
एवमेयाइ कम्माइ अट्ठेव उर मासवो ॥ उत्त० सू० ३३.२८०
२.
दे० जैनतत्त्वकलिका, पृ० १६५
३. मुत्तस्सामतिमत्ता जीवेण कथं हवेज्ज संबधो ।
सोम्मधस्स व णभसा जद्यं वा दव्वस्स विरियाए ॥
गणधरवाद गा० १६३५
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