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254 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन अनन्यतम साधन विशुद्ध विवेकज्ञान है।
.. जैनदर्शन में साधक की यह अवस्था आठवें गुणस्थान के द्वितीय चरण से प्रारम्भ होती है जिसमें साधक क्षाफश्रेणा द्वारा चार घातिया कर्मों को नष्ट करके पूर्णकर्म सन्यासयोग प्राप्त करता है और बिना किसी बाधा के केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
(ख) आत्मा एवं कर्म
सामान्य लोगों में विभिन्न व्यवसायों, कार्यों या व्यवहारों के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग होता है। खाना-पीना आदि जितने भी दैनिक जीवन के कार्य हैं उनके लिए भी कर्म शब्द प्रयक्त होता है। नैयायिकों ने उत्क्षेपण, अवक्षेपण आदि सांकेतिक कर्मो के लिए इसका व्यवहार किया है।
पौराणिक लोग व्रत आदि धार्मिक क्रियाओं को, कर्मकाण्डी मोमांसक यज्ञयोग आदि को, स्मृतिकार विद्वान् चार आश्रम और चार वर्गों के नियत कार्यों को कर्म रूप में मानते हैं। जबकि कुछ दार्शनिक संस्कार, आशय, अदष्ट और वासना आदि अर्थों में इसका प्रयोग करते
जनदर्शन में कर्म शब्द इन सबसे विलक्षण एवं विशिष्ट अर्य में प्रयुक्त हुआ है, जो मनोविज्ञान सम्मत भी है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन कारणों से जीव द्वारा जो किया जाता है, उसे तथा उसके निमित्त से जो कर्म योग्य पुद्गल द्रव्य अपने आत्म प्रदेशों के साथ मिला लिया जाता है, उस आत्म सम्बद्ध पुद्गल द्रव्य को कर्म कहते हैं।' १. पुरुषार्पशूनानां गणानां प्रति प्रसवकैवल्यं ।
स्वरूपप्रतिष्ठा वा चित्तिशक्तेरिति ॥ यो० द०, ४.३४
तथा --विवेकख्याति रविप्लवा हानोपायः । वही, ३.२६ २. द्वितीयाऽपूर्वकरणे मुख्योऽयमुपजायते।
केवलश्रीस्ततश्चास्य निःसपत्नासदोदया ॥ योगदृ० समु०, श्लोक १७७ ३, दे० जैनतत्त्वकलिका, पृ० १५५ ४. कीरइजिएण हे उहि, जेणं तो भण्णए कम्मं ॥ कर्मग्रंथ, भाग-१ गा १
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