SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण 253 अथवा सर्वज्ञ वही होता है, जो साधक १२वें गुणस्थान में पहुंचकर अन्तम हर्तकाल में ही एक विविध प्रकार के कर्मावरण (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय) को क्षय करके शाश्वत निरतिशय, अनुपम, अनुत्तर, निरवशेष, सम्पूर्ण वस्तुओं को जानने के कारण भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल के द्रव्य-गण और पर्यायों को सभी प्रकार से देखता है। यही सर्वज्ञ है और यही केवली भी है। केवली (सर्वज्ञ) केवलज्ञानरूपी नेत्र से अतीन्द्रिय-इन्द्रियों द्वारा अगम्य पदार्थों को साक्षात् देखते हुए धर्मोपदेश करने में प्रवृत्त होते हैं, जिसके लिए वे अधिकृत भी हैं। ऐसे निर्मम, निरहंकारी, वोतरागी तथा अनास्रवी मुनि केवलज्ञान को प्राप्त कर शाश्वत परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। चैतन्य आत्मा का स्वरूप भी यही है। वह ज्ञान से पृथक् नहीं। इसलिए सर्वज्ञत्व मुक्तावस्था से पूर्व तथा पश्चात् दोनों ही स्थितियों में होता है। आत्मा का स्वभाव ही है--स्वस्वरूप में प्रगटना या अवस्थित होना । योगदर्शन के अनुसार पुरुष के कार्य का सम्पादन कर चुकने पर निष्प्रयोजन हुए गुणों का अपने कारण में लीन हो जाना और चितिशक्ति का अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाना कैवल्य है, जिसकी प्राप्ति का १. छद्मस्थवीतरागः कालं सोडन्तर्मुहूर्तमथ भूत्वा । युगपदविविधावरणान्तरायकर्मक्षयभवाप्य । प्रशमरति, भाग-२, श्लोक २६८ शाश्वतमनन्तमनतिशयमनुत्तरनिरवशेषम् । सम्पूर्णमप्रतिहतं सम्प्राप्तः केवलज्ञानम् ॥ कृत्स्ने लोकालोके व्यतीतः साम्प्रतं भविष्यत: कालान् । द्रव्यगुणपर्यायाणां ज्ञात्वादृष्ट्वा च सर्वार्थः ॥ वही, २६९-७० तथा मिला०-मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । तत्त्वार्थ० १०.१ ३. साक्षादतीन्द्रियानर्थान् दृष्ट्वा केवलचक्षुषा । ___ अधिकारवशात् कश्चित् देशनायां प्रवर्तते । यो बि०, श्लोक ४२५ ४. निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासवो। सम्पत्तो केवलं नाणं, सासयं परिणिव्वुए ॥ उत्तरा०, ३५.२१ ५. चैतन्यमात्मनो रूपं न च तज्ञानतः पृथक् । युक्तितो युज्यतेऽन्ये तु ततः केवलमाश्रिता ॥ यो० बि० श्लोक ४२८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy