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252 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन बोधिसत्त्व कहा गया है। सम्यक्दृष्टि और बोधिसत्व में तात्त्विक रूप से कोई अन्तर नहीं होता।
परोपकार में हार्दिक अभिरुचि, प्रवृत्ति में बुद्धिमत्ता, विवेकशीलता, धर्ममार्ग का अनुसरण, भावों में उदात्तता, उदारता तथा गुणों में अनुराग ये सब बोधिसत्त्व तथा सम्यग्दष्टि में समानरूप से पाए जाते हैं। सम्यग्दर्शन और बोधि वास्तव में एक ही वस्तु है । बोधिसत्त्व वही पुरुष होता है, जो बोधि से युक्त हो तथा कल्याण पथ पर सम्यग्गतिशील हो। सम्यग्दृष्टि भी ऐसा ही होता है। दानों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। - करुगा आदि गुणों से युक्त, परहित साधन में विशेष अभिरुचि, सदाचारी, प्रज्ञावान्, उत्तरोत्तर विकास पथ पर अग्रसर आध्यत्मिक गुणों से युक्त सत्पुरुष यत्नशील रहता है । जो उत्तमबोधि से युक्त है, भव्यत्व के कारण अपनी उद्दिष्ट मोक्ष यात्रा में आगे चलकर तीर्थङ्कर पद प्राप्त करने वाला है, वह बोधिसत्त्व है। सग्यग्दृष्टि भी ऐसा हो होता है।
चारित्र के बिना सम्यक्त्व तो हो सकता है, किन्तु सम्यक्त्व के बिना न तो ज्ञान और न चारित्र ही हो सकता है । अत: चारित्र से पूर्व सम्यक्त्व होना आवश्यक है। इसी कारण से मोक्षमार्ग का कथन करते हुए आचार्य ने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का ही उल्लेख किया है । सर्वज्ञ आत्मा
जैनदर्शन में सर्वज्ञ के लिए केवली शब्द का प्रयोग हुआ है। केवली परार्थरसिको धीमान् मार्गगामी महाशयः ।
गुणरागी तथ्येत्यादि सर्व तुल्यं द्वयोरपि ॥ योगबिन्दु, श्लोक २७२ २, वही, श्लोक २७३ ३. योगबिन्दु, श्लोक २८७ ४. वही, श्लोक २७४
नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहणं दंसणे उ भइयव्वं । सम्मत्तचरित्ताई जुगर्वं पुव्वं न सम्पत्तं ।। उत्तरा० २८,२६ नादंसणिस्स नाणं नाणेण विना न हुन्ति चरणगुणा।
अगुणिस्स नस्थि मोक्खो नस्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ वही, २८.३० ६. सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्ष मार्गः । तत्त्वार्थसूत्र १.१
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