SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगविन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण 251 आत्मा का भोक्तत्व जो आत्मा कर्म करता है वही उनका भोग भी कर्ता है, जैसे सेंध लगाता हुआ, पकड़ा गया चोर अपने कृतकर्मों के फलानुसार दण्ड को भोगता है। इसी प्रकार जीव भी अपने कृतकर्मों के कारण लोक तथा परलोक में विविध प्रकार से सुख-दुःख पाता है। किए हए कर्मों को भोगे बिना उसका छुटकारा नहीं होता । आत्मा स्वयं अकेला ही कृतकों के सुख-दुःख रूप फल को भोगता है क्योंकि कर्म कर्ता के ही पीछे चलता है। इन प्रमावों के आधार पर यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि आत्मा ही कर्मों का भोक्ता है, किन्तु जैसे उपनिषदों में जीवात्मा को कर्ता और भोक्ता मानकर भी परमात्मा को दोनों से रहित माना गया है, वैसे हो जनदर्शन में जीव के कर्म कर्तत्व और भोक्तत्व को व्यावहारिक दृष्टि से ही माना गया है । निश्चय दृष्टि से तो जीव कर्म का कर्ता भी नहीं है तो फिर वह भोक्ता कैसा होगा ?' ..जैनदर्शन व्यवहार और निश्चय इन दो दृष्टियों से ही किसी भी पदार्थ का निर्णय करता है । व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा कर्मों का कर्ता है, कारण कि व्यवहार में आत्मा का कत्व स्पष्ट प्रकट है। फिर भी व्यवहार में उसे कर्मों का कर्ता तभी तक माना जाता है, जब तक वह कषाय और योग से युक्त है किन्तु जब वही अकषाया और अयोगी हो जाता है तब वही आत्मा अकर्ता भी होता है। तत्त्वज्ञ आत्मा जो आत्मा नौ तत्त्वों को जानता है और उनपर श्रद्धा करता है, वही तत्त्वज्ञ कहलाता है, उसे जैनदर्शन में बद्ध और सम्यग्दष्टि कहा जाता है । इसे ही ज्ञानी आत्मा भी कहा जाता है। बौद्ध दर्शन में इसे १. तेणे जहा सन्धिमहे गहीए, सकम्मूणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ॥ उत्तरा०, ४.३ २. एक्को सयं पच्चणु होई दुःखं, कत्तारमेव अणु जाइ कम्मं । वही, १३,२३ ३. परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पिय परं अकुव्वतो। सोणाणमओ जीत्रो कम्माणमकारओ होदि । समयसार, गा० ६३ ४. बुद्धे परिनिव्वुडे चरे । उत्तरा० १०.३६ ५. ज्ञानसम्यग्दृष्टेर्दर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम् । चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् ॥ प्रशमरति भा०, २, लोक २०१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy