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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
सकता है ।। सूत्रकृतांगसूत्र में बताया गया है कि जीव पूर्वजन्म में जैसा कर्म करता है वैसा ही फल उसे मिलता है।
इसके अतिरिक्त कोई अन्य शक्ति किसी को सुख-दुःख देने वाला नहीं है। कर्मों के कारण ही आत्मा अतिमूढ़, दुःखित और अत्यन्त वेदना से युक्त मनुष्येतर योनियों में जन्म लेकर पुनः-पुनः पीड़ित होता है । विविध प्रकार के कर्मों को करके नानाविध जातियों में उत्पन्न होकर पृथक्-पृथक् रूप में प्रत्येक संसारी जीव समस्त विश्व को स्पर्श कर लेता है।
अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण ही जीव कभी देवलोक में देव, तो कभी नरक में नारकी, कभी असुरयोनि में असुर तथा कभी तिर्यग्योनि में पशु-पक्षी बन जाता है। जैसे चिरकाल तक भोतिक पदार्थों का भोग करके भी क्षत्रिय लोग भोगों से विरक्त नहीं होते, वैसे ही कर्मों से बद्ध जोव विविध योनि में भ्रमण करता हुआ भी उनसे मुक्ति की इच्छा नहीं करता।
इस तरह कर्मबद्ध यह आत्मा ही अपने को कर्त्ता समझती है। उसके कर्मबन्ध का कारण भी राग और द्वेष ही है। राग-द्वेष से मोह उत्पन्न होता है और मोह से कषाय उत्पन्न होती है। अत: प्रकारान्तर से मोह भी कर्मबन्ध का कारण माना गया है और कषाय भो। १. कर्मग्रन्थ, कर्मप्रकृति, विसंग्रह, सप्ततिका, महाकर्म, प्रकृतिप्राभृत,
षड्खण्डागम आदि प्रमुखरूप से द्रष्टव्य हैं । २. जं जारिसं पुवमकासिकम्मं तमेव आगच्छति संपराए । सूत्रकृतांगसूत्र ५.२.२३ ३. कम्मसंगेहि सम्मढा दुक्खिया बहवेयणा ।
अमाणसास जोणीस विणिहम्मान्ति पाणिणो ॥ उत्तरा० ३.६ ४. समावन्नाण संसारे नाणा गोत्तासु जाइसु ।
कम्मानाणा विहा कटु पुढो विस्मंभिया पया ॥ वही, ३.२ ५. एगया देवलोएस नरएस वि एगया।
एगया आसुरं कायं आहाकम्मे हि गच्छई ॥ वही, ३.३
उत्तरा० ३.२ ७. रागो य दोसो वियकम्वीयं । वही, ३२.७ ८. कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । वही, ६. सकवायत्वाज्जीवः कर्मण्णो योग्यान्पुद्गलानादत्ते । तत्त्वार्थसूत्र ८.२
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