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योग : ध्यान और उसके भेद
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जब साधक सूक्ष्मकषाय को भी साधना के द्वारा क्षय कर देता है तब वह बारहवें गुणस्थान क्षीणकषाय में पहुंच जाता है। ज्योंहि साधक सम्पूर्ण कषाय को नष्ट कर चार घातिकर्मों को भी नष्ट कर देता है, तब वह उसी समय तेरहवें गुणस्थान सयोगीकेवली में पहुंच जाता है।
और संसारचक्र से सदा-सदा के लिए छूट जाता है। यही उसका निर्वाण व मुक्तिलाभ है।
१. गो०, जीवकाण्ड, गा० ६२ तथा कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृ० ३६-४० २. गो०, जीवकाण्ड, गा० ६३ व ६४ तथा कर्मग्रन्थ, भाग-२, पु० ४०,
जनतत्त्वकलिका, पृ० २०२ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
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