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परिच्छेद-पंचम योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण जब आत्मा की खोज होने लगी, तब यह कहा जाने लगा कि अन्नमय आत्मा जिसे शरीर भी कहा जाता है, रथ के समान है, उसे चलाने वाला रथी ही वास्तविक आत्मा है ।' आत्मा प्राण का भी प्राण है। जैसे मनुष्य की छाया का आधार स्वयं मनुष्य ही है, उसी प्रकार प्राण भी आत्मा पर अवलम्बित है। विश्व का आधार भी प्राण ही है। और वह देवों का भी देव है । आत्मा को प्रज्ञा और प्रज्ञान और उसे ही विज्ञान भी बतलाया गया है।'
वैदिक दार्शनिकों ने आत्मा को आनन्दमय स्व कार किया है किन्तु इन दार्शनिकों के विचारों और मतों में भी निरन्तर परिष्कार होता गया और उन्होंने कहा कि आत्मा स्वयं प्रकाश स्वरूप और अन्तर्यामी है। वही द्रष्टा श्रोता और विज्ञाता है । आत्मा ही चिन्मात्र सूर्य के प्रकाशरूप और ज्योतिमय है।"
इसके अतिरिक्त आत्मा को उन्होंने अजर अमर, अक्षर, अमृत १. दे० छान्दोग्योपनिषद् का सार, हिस्ट्री आफ इण्डियन फिलासफी, भाग-२,
पृ० १३१ २. केनोपनिषद्, १.४.६ ३. प्रश्नोपनिषद्, ३.३ ४. छान्दोग्य-उपनिषद्, ३.१५ ५. बृहदारण्यक-उपनिषद्, १.५.२२-२३ ६. ऐतरेय-उपनिषद्, ३.३ ७. वही, ३,२ ८. तैत्तिरीय-उपनिषद्, २.५ ६. वृहदारण्यक-उपनिषद् ३.७.२२ तया ४.५.१३ १०. वही, ३७,२३ व ३.८.११ ११. मैत्रेय्युपनिषद्, ३.१६.२१
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