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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
बादर में ही रखी जाती है।'
नौंवा गुणस्थान है-अनिवृत्तिबादर । इससे बादर (स्थूल) संपराय (कषाय) उदय में होता है क्योंकि इसमें जितने समय होते हैं, उतने हा परिणाम होते हैं । एक समय में एक ही परिणाम होता है । अतएव इसमें भिन्न समयवर्ती परिणामों में विसादृश्य और एक समयवर्ती परिणामों में सादृश्य होता है। इन परिणामों के द्वारा कर्मक्षय हो जाता है ।
इस गुणस्थान में सूक्ष्मकषाय और उनमें भी संज्वलन लोभ के सूक्ष्म लोभ की ही अनुभूति साधक को होती है। इसका वेदन करने वाला चाहे उपशमश्रेणी वाला हो, अथवा क्षपकश्रेणी वाला, वह यथाख्यातचरित्र के अत्यन्त निकट होता है।
सम्पूर्ण मोहनीयकर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले साधक के निर्मलपरिणामों को उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवां गुणस्थान बतलाते हैं । जैसे कीचड़युक्त जल में निर्मली डालने से कीचड़ नीचे बैठ जाता है और ऊपर स्वच्छ जल रह जाता है अथवा शरद ऋतु में निर्मल हुए सरोवर के जल की तरह इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयरूप * कीचड़ का उपशम तथा ज्ञानावरण का उदय होने से इस गुणस्थान का यथार्थ नाम उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ है।
१. दे० कर्मग्रंथ, भाग-२, पृ० २८ २. गणिवट्ट ति तहाविय परिणामेहि मिहोजेहिं ।
होंति अणियट्टिणो ते, पङिसमयं जेस्सिमेकपरिणामा । विमलयरझाणहु यवहसिहाहिणिद्द डढकम्मवणा ।। गो० जीवकाण्ड, गा० ५६
५७ तथा मिला० कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृ० ३३ ३. अणु लोहंवेदतो जीवो उवसामगो व खवगो वा ।
सो मुहमसापराओ, जहखादेपूणओ किंचि ।। गो. जीवकाण्ड, गा०६०
तथा मिला०—कर्मग्रंथ, भाग-२, पृ० ३५ ४. कदकफतं जु दजलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलयं ।
सयलोवसतमोहो उबसंतकसायओ होदि ॥ गो० जीवकाण्ड, गा०६१ तथा-कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृ० ३६
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