________________
236
योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
है । इनमें से उपशम सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण होते ही यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाता है, तो वह अर्धसम्यक्त्वी और अर्धमिथ्यात्वी जैसी दृष्टि वाला हो जाता है। इसे ही तृतीय सम्यग्मिथ्यात्वदृष्टि गुणस्थान कहते हैं । इसका काल अन्तर्मुहूर्त हा है । अतः उसके पश्चात् यदि सम्यक्त्वप्रकृति का उदय हो जाए तो वह ऊपर चढ़कर सम्यक्त्वी बन जाता है और यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाए तो वह नीचे गिरकर मिथ्यात्वदष्टि गणस्थान में आ जाता है।
गोम्मट्टसार के अनुसार जिस प्रकार दही और गुड़ को परस्पर इस तरह से मिलाने पर कि फिर उन दोनों को पृथक्-पृथक् न कर सके उस द्रव्य के प्रत्येक परमाणु का रस मिश्ररूप (खट्टा और मीठा मिला हुआ) होता है। इसी प्रकार मिश्र परिणामों में भी एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप परिणाम रहते हैं । (४) अविरतसम्यक्दृष्टि गुणस्थान
दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम करके जीव सम्यक्दष्टि बनता है। उसे आत्मस्वरूप का यथार्थ बोध हो जाता है। फिर चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण वह उस सत्य मार्ग पर चलने पर असमर्थ रहता है और संयम आदि के पालन करने की भावना होने पर भो व्रत आदि का लेशमात्र भी पालन नहीं कर पाता । इस प्रकार विरति या त्याग के अभाव के कारण इसे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। गोम्मट्टसार के अनुसार दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति तथा चार अनन्तानुबन्धी कषाय इन सात प्रकृतियों के उपशम से ओपशमिक और सर्वथा क्षय से क्षायिक
१. दे० कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृ० २० तथा मिला-सम्मामिच्छ दयेण य, जत्तंतरसम्बधादिकज्जेण ।
णयसम्ममिच्छंपि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥ गो०
जी, गा० २१ २. दहिगडमिव वा मिस्सं, पुहमावणंवकारिदु सक्कं ।
एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छोत्ति णादवो ॥ गोम्मट्टसार, जीव काण्ड,
गा० २२ ३. दे० कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृ० २३
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org