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________________ योग : ध्यान और उसके भेद 337 सम्यग्दर्शन होता है। यहां पर अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहा करता है। यही कारण है कि इस गुणस्थान वाले जीव की असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। (५) विरताविरत गुणस्थान जब सम्यग्दष्टि जोव के अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम या क्षयोपशम होता है, तब वह त्रस-हिंसादि स्थूल पापों से विरत होता है, किन्तु स्थावर हिंसादि सूक्ष्म पापों से तो वह अविरत ही रहता है। ऐसे देशविरत अणुव्रती जीव को विरताविरत गुणस्थान वाला कहा जाता है । गोम्मट्टसार में इसे देशविरत या देशसंयत भा कहा गया है ।' (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान जब सम्यग्दष्टि जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम अथवा क्षयोपशम होता है तब वह स्थूल और सूक्ष्म सभी हिंसादि पापों का त्याग कर महाव्रतों को जिसे सकल संयम भी कहते हैं, धारण करता है फिर भी उसके संज्जवलन और नौकषायी के तीव्र उदय होने से कुछ प्रमाद बना ही रहता है। ऐसे प्रमाद युक्त संयमी को प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाला कहा जाता है ।। (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान __ जब प्रमत्तसंयत जीव के संज्वलन और नौकणायों का मन्द उदय होता है, तब वह इन्द्रिय विषय विकथा निद्रादि रूप समस्त प्रमादों से रहित होकर शील संयम का पालन करता है । ऐसे साध को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाला कहा जाता है। १. सत्तण्हं उवसमदो उवसमसम्मो खया दुखइयो य । विदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य ।। गो० जीवकाण्ड गा० २६ २. दे० कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृ० २५ ३. पच्चवखाणुदयादो संजयभावो ण होदि णारि तु । थोववदो होदि तदो देसवदो होदि पंचमओ ।। गौ० जीवकाण्ड गा० ३० ४. समवायांगसूत्र समवाय १४, तथा मिला०-गोम्मट्टसार, जीवकाण्ड, गा० ३२ ५. दे० कर्मग्रन्थ २, तथा गोम्मट्टसार, जीव काण्ड, गा० ४५ ____Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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