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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
सास्रवयोग कहा जाता है और वह सास्रवयोगी अनेक जन्म मरण ग्रहण करने के बाद मोक्ष पाता है। अतः इसे दीर्घसंसारी भी कहा गया है। सास्रवयोग उस साधक के सधता है जिसके अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने में अभी अनेक जन्म पार करने शेष हैं। जो अनास्रवा है, वह चरमशरीरी है और जो सास्रवी है वह अचरमशरीरी होता है ।।
अनास्रवयोग
अनास्रव का अर्थ है निश्चयनय के अनुसार सर्वथा आस्रव रहित अवस्था तथा व्यवहारनय के अनुसार साम्परायिक आस्रवरहित अवस्था का नाम अनास्रवयोग है यह लगभग आस्रव रहित अर्थात् अल्प आस्रव वाली अवस्था विशेष है । यहां साधक शीघ्र ही अनास्रव दशा प्राप्त कर लेता है।
व्यवहारनय द्वारा प्रतिपादित अर्थ भी निश्चयनय के विपरीत नहीं जाता क्योंकि वह सर्वत्र तत्संगत ही होता है। यों तो निश्चय और व्यवहार दोनों ही अभिमत यथार्थत: स्वीकृत अर्य को ही प्रकट करते हैं। इस प्रकार अनास्त्रवयोग उसके सघता है जो उसी जन्म में मुक्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अनास्रवी केवल एक ही जन्म से गुजरता है, उसे अमला जन्म नहीं लेना पड़ता।
जो चमरशरीरी हैं, वे वर्तमान शरीर के बाद और शरीर धारण नहीं करते। जिनके सम्परायवियोग अर्थात् कषाय वियाग होता है अर्थात् जिनके कषाय नहीं रहे हैं, उसके साम्परायिक आस्रव बन्ध नहीं होता। ऐसी स्थिति में अन्य अतिसामान्य आस्रव के गतिमान रहने पर भी वह अनास्रव कहा जाता है क्योंकि वह बन्ध बहुत मन्द, अल्प एवं लघु होता है। १. अस्यैव सास्रवः प्रोक्तो बह जन्मान्तरावहः ।। यो० बि०, श्लोक ३७५ २. सास्रवो दीर्घसंसारस्ततोऽन्योऽनास्रवः परः । __ अवस्थाभेदविषयाः संज्ञा एता यथोदिताः ।। वही, श्लोक ३४
एवं चरमदेहस्य संपरायवियोगतः । . - इत्वरास्रवभावेऽपि स तपाऽनास्रवो मतः ॥ वही, ३७७ ४. निश्चयेनात्र शब्दार्थः सर्वत्र व्यवहारतः ।
निश्चयव्यवहारौ च द्वावायभिमतार्थदौ । वही, ३७८ ५. पूर्वव्यावणितन्यायादेकजन्मा त्वनास्रवः । वही, श्लोक ३७५
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