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योग : ध्यान और उसके भेद
__ जैनदर्शन के अनुसार बारहवें, गुणस्थान क्षीण मोह और तेरहवें सयोगी-केवली गुणस्थानों में इसी प्रकार का कर्म बन्ध होता है। वस्तुतः इस विवेचन के अनुसार जो पारिभाषिक रूप में अनास्त्रव कोटि के अन्तर्गत जाता है। (ग) गुणस्थान और योग
गुणस्थानों का वर्णन कर्मबन्ध की प्रक्रिया में जितना प्रचुर रूप से देखा जाता है, उतना ही उनका योगसाधना में भी प्रयोग आवश्यक है। ये योगसाधना के स्थल हैं। उसकी भूमि विशेष हैं। इन्हें साधना की श्रेणियां भी कहा जा सकता है । साधना की पूर्णता के लिए एक साधक को इन्हें पूर्ण करना भी अनिवार्य है।
गुणस्थान का स्वरूप
आगमों में जीव के स्वभावज्ञान, दर्शन और चारित्र, का नाम गुण है और इन गणों की शद्धि और अशद्धि के उत्कर्ष एवं अपकर्ष कृतस्वरूप विशेष का भेद गुणस्थान कहलाता है । आत्मा के गुणों की शुद्धि-अशुद्धि के उत्कर्ष अथवा अपकर्ष के कारण आश्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा हैं। कर्मों का आश्रय और बन्ध होने पर आत्म-गुणों में अशुद्धि का उत्कर्ष होता है तथा संवर एवं निर्जरा के द्वारा कर्मों का आश्रव और बन्ध के रुकने वा क्षय होने से गुणों की विशुद्धि में उत्कर्ष और अशुद्धि में अपकर्प होता है।
इस तरह जीवों के परिणामों में उत्तरोत्तर अधिकाधिक शद्धि बढ़ती जाती है, विशुद्धि से आत्मगुणों का विकास होता है। आत्मगुणों के इसी विकास क्रम को गुणस्थान कहते हैं। समवायांगसूत्र समयसरा और प्राकृत पंचसंग्रह आदि ग्रंथों में गुणस्थान को जीवस्थान भी कहा १. दे० कर्मग्रन्थ ४, पृ० १२ २. वही, पृ० १२, १३ ३. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दसजीवट्ठाणा पणत्तो।
समवायांगसूत्र, समवाय १४,५ ४. समयसार, गाथा ५५ ५. दे०, प्राकृत पंचसंग्रह
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