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योग : ध्यान और उसके भेद
231 विघ्न बाधाओं को पार करता हुआ, आगे बढ़ता रहता है, उसे ही सानुबन्धयोग कहते हैं। उसको उत्तरवर्ती विकास श्रृंखला सहित यथावत् रूप ये इस योग की प्राप्ति होती है ।
(४) निरनुबन्धयोग
जिस योग में साधक की साधना भंग हो जाए, उसका बीच में विच्छेद होना अर्थात् जब गतिरोध साधक को आगे बढ़ने से रोक देते हैं, तब उसकी इस अवस्था को निरनुबन्धयोग कहा जाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने साधना में आने वाले विघ्नों को अपाय संज्ञा दी है। जिसकी साधना अपायों से मुक्त नहीं, उसके योग को ही निरनुबन्धयोग बतलाया गया है।
अपायरहित साधना परायण महापुरुषों ने अतीत में संचित पापाशय हिंसा, असत्य, चौर्य, लोभ, अहंकार, छल, क्रोध, द्वेष, व्यभिचार आदि से सम्बन्धित विविध कमों को अपाय कहा है, उन्हें 'निरूपक्रम संज्ञा' दो गई है। उनका फल अवश्य ही भोगना होता है। (५) सास्रवयोगः
सास्रव का अर्थ है-आस्रव से युक्त । आस्रव का विश्लेषण करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है कि-आस्रवो बन्धहेतुत्वाद् बन्ध एवेह यन्मतः । अर्थात् कर्म बन्ध का जो हेतु है वही आस्रव है और वह आत्मा के लिए बन्धन रूप है। वस्तुतः कर्म बन्ध का मुख्य कारण कषाय है और आस्रव कषाय से अनुप्रेरित होता है क्योंकि बन्धन के साथ उसकी वास्तविक संगति है। जो कषायों से युक्त होता है, उसका योग ही
१. दे. योगबिन्दु, श्लोक ३७१ २. वही, ३. वही, श्लोक ३३ ४. अस्यैव वनपायस्य सानबन्धस्तथा स्मृतः ।
योदितक्रमेणव सोपायस्य तथाऽपरः ।। वही, श्लोक ३७२ ५. अपायमाहुः कर्मैव निरपायाः पुरातनम् ।
पापाशयकरं चित्रं निरूपक्रमसंज्ञकम् ॥ वही, ३७३ ६. योगबिन्दु, श्लोक ३७६
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