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230 , योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन छोड़कर साधना में प्रवृत्त होता है तो वही साधना तात्त्विकयोग है। अध्यात्मयोग तथा भावना योग अपुनर्बन्धक के व्यवहार दृष्टि से और चारित्री के निश्चयदष्टि से साधे जाते हैं। यद्यपि इस श्लोक में सम्यक्दृष्टि का उल्लेख नहीं है किन्तु टीककार के अनुसार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसे अपुर्नबन्धक के साथ जोड़ा जा सकता है।
चारित्री को ध्यान, समता, तथा वृत्तिसंक्षय संज्ञकयोग उसकी शुद्धि आन्तरिक निर्मलता के अनुरूप निश्चितरूप में प्राप्त होते हैं। वे ही तात्त्विकयोग होते हैं। (२) अतात्त्विक योग
निजस्वरूपस्थ होने के लिए प्रवृत्त न होकर केवल लोक रंजनार्थ यौग का जो अभिप्राय लिया जाता है, वही अतात्त्विक योग है। अथवा जो केवल मौज-मस्ती और भरण-पोषण के लिए जो साधक वेश धारण करते हैं और वैसी चेष्टाएं करते हैं उनका योग अतात्त्विक है। सकृत् आवर्तन में विद्यमान तथा उन जसे और व्यक्तियों के अध्यात्मयोग और भावनायोग भी अतात्त्विक होते हैं क्योंकि उनमें साधकों जैसा वेश आदि केवलबाह्य प्रदर्शन मात्र होता है, जो आचरण वे करते हैं, प्रायः अनिष्टकर तथा दुर्भाग्यपूर्ण फलप्रद होता है । (३) सानुबन्धयोग
जिस योग में साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने तक निरन्तर
अपुनर्बन्धकस्यायं व्यवहारेण तात्विकः । अध्यात्मभावनारूपो, निश्चयेनोत्तरयस्तु ॥ यो० वि० श्लोक ३६६ निश्चयेन निश्चयनयमतेनोपचारपरिहारूपेण उत्तरस्य तु अपुनर्बन्धकसम्यक् दृष्टयाऽपेक्षया चारित्रिण इति । यो० बि० श्लोक ३६६ पर संस्कृत
टीका हारिभद्रीय योग भारती, पृ० २५२ ३. योगविन्दु, श्लोक ३७१। ४. तात्विकीभूत एव स्यादन्यो लोकव्यपेक्षया ।
अविच्छिन्नः सानुबन्धस्तु छेदवानपरो मतः । यो० वि०, श्लोक ३३ ५. सकृदावर्तनादीनामतात्विक उर्दाहृतः ।
प्रत्यपायफलप्रायस्तथावेषादिमात्रतः ॥ वही, श्लोक ३७०
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