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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
केन्द्रित करता है । वह तीर्थंकर के गुणों एवं आदर्शों को अपने समक्ष रखता है तथा उन्हें अपने जीवन में आरोपित करता हआ अपने चित्त को स्थिर करता है । अरिहन्त के स्वरूप का आलम्बन करके की जाने वाली साधना ही रूपस्थध्यान कहलातो है।।
रूपस्थध्यान का साधक राग-द्वेषादि विकारों से रहित, शान्त कान्तादि समस्त गुगों से युक्त तथा योग मद्रा समचित्त, अमन्द आनन्द के प्रवाह को बहाने वाले जिनेन्द्र देव के दिव्य भव्य रूप का निर्मल चित्त से ध्यान करने वाला योगी भो रूपस्थध्यान वाला होता है। वह सर्वज्ञदेव परम ज्योति का आलम्बन करके उनके गणों का बारम्बार चिन्त्वन करता हुआ अपने मन में विक्षेप से रहित होकर उनके स्वरूप को प्राप्त करता है। जबकि इसके विपरीत राग-द्वेष का ध्यान करने वाला स्वयं रोगी द्वेषी बन जाता है। कारण कि साधन के परिणाम जिन-जिन भावों से युक्त होते हैं, उन्हीं के अनुरूप वे परिणत हो जाते हैं। साधक की आत्मा उस-उस भाव से वैसी ही तन्मयता को प्राप्त हो जाती है जैसे निर्मल स्फटिकमणि जिस वर्ण से युक्त होता है वह तद्रूप हो जाता है । अतः जगत् के अद्वितोय नाथ शिवस्वरूप निष्कलंक
१. सर्वातिशययुक्तस्य केवलज्ञानभास्वतः ।
अर्हतां रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थ मुच्यते ॥ यो०शा० ६.७ तथा--आर्हत्यमहिमोपेतं सर्वशं परमेश्वरम् ।
ध्यायेद्देवेन्द्रचन्द्रार्कसमान्तस्थं स्वयम्भवम् ।। ज्ञानार्णव, ३६.१ २. रागद्वषमहामोहविकारैरकलडि कतम् ।
शान्तं कान्तं मनोहारिसर्वलक्षणलक्षितम् ।। तीर्थङ्करपरिज्ञातयोगमुद्रा मनोरमम् ।
अक्षाणरमन्दमानन्दनिःस्यन्दं दददद्भुतम् ॥ यो०शा० ६.८-६ तथा १० ३. (क) अनन्यशरणं साक्षात्सलीन कमानसः ।
तत्स्वरूपमवाप्नोति ध्यानी तन्मयतां गतः ॥ ज्ञानार्णव, ३६.३२ (ख) योगी चाभ्यासयोगेन तन्मयत्वमुपागतः ।
सर्वज्ञीभूतमात्मानमवलोकयति स्फुटम् ॥ यो०शा० ६.११ ४. दे० यो०शा०, ६.१३ ५. दे० वही, ६.१४
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