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________________ योग : ध्यान और उसके भेद 213 'क्ष्वी विद्या का जाप करने का भी विधान है, जिसे भाल प्रदेश पर स्थित करके एकाग्र मन से चिन्तन करने से कल्याण होता है ।। अतः साधक को कभी ललाट पर क्ष्वी विद्या का तो कभो नासाग्र पर प्रणव ॐ का तथा कभी शून्य अथवा अनाहत' का अभ्यास करना चाहिए। इससे अनेक सिद्धियों तथा निर्मल ज्ञान का उदय होता है । इस प्रकार पदस्थ ध्यान में पदों का आलम्बन चित्त को एकाग्र करने हेतु लिया जाता है और जप विधियों का अभ्यास किया जाता है, इससे अनेक लब्धियां प्राप्त होती हैं किन्तु जो राग-द्वषादि से पूरित होकर ध्यान करता है, उसको कोई भी सिद्धि नहीं मिलती ।। इन मन्त्र पदों के अभ्यास से विलीन हुए समस्त कर्मों के बाद आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रतिभास होता है और उस स्वरूप में उपयोग प्राप्त होने से घातिया कर्मों का नाश हो जाता है, और केवलज्ञान की उपलब्धि होती है यही इसका फल है। यही निर्वाण व मुक्ति भी है। रूपस्थ ध्यान इस ध्यान में साधक अपने मन को तीर्थंकर अथवा सर्वज्ञदेव पर शशिबिम्बादिवोद्भूतां स्रवन्तीममृतं सदा । विद्या क्ष्वी इति भालस्थां ध्यायेत्कल्याणकारणम् ।। यो० शा० ८.५७ तथा-स्मरसकलसिद्धविद्यां प्रधानभूतां प्रसन्नगम्भीराम् ।। विधुबिम्ब निर्गतामिव क्षरत्त्सुधाी महाविद्याम् ॥ ज्ञानार्णव, ३८.८१ २. उबिन्द्राकारहरोदूर्ध्वरेफबिन्द्वानवाक्षरम् । भालाध: स्यन्दिपीयूषविन्दु विदुरनाहतम् ॥ ज्ञानार्णव, पृ० ३६८ पर उद्धृत गाथा १ ३. नासाग्रे प्रणवःजन्यमनाहतमितित्रयम् । ध्यायन गुणाष्टकं लब्ध्वा ज्ञानमाप्नोति निर्मलम् ॥ यो० शा० ८.६० तथा—नासाग्रदेशसं लीनं कुर्वन्नत्यन्तनिर्मलम् । ध्याताज्ञानमवाप्नोति प्राप्य पूर्वं गुणाष्टकम् ॥ ज्ञाना० ३८.८७ ४, वीतरागस्य विज्ञेयाध्यानसिद्धि ध्रुवं मुनेः । क्लेश एव तदर्थ स्याद्रागातस्येह देहिनः ॥ वही, ३८.११४ ५. विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमति निर्मलम् । स्वं ततः पुरुषाकारं स्वाङ गगर्भगतं स्मरेत् ॥ ज्ञाना० ३८.११६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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