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योग : ध्यान और उसके भेद
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वीतराग भगवान् का ध्यान करना चाहिए ।'
रूपातीतध्यान
रूपातीत ध्यान का अर्थ है-निराकार, चैतन्य स्वरूप, निरंजन सिद्ध परमात्मा का ध्यान अथवा जिस ध्यान में ध्यानी मुनि चिदानन्दमय शुद्ध अमूर्त परमाक्षररूप आत्मा को आत्मा से ही स्मरण करते हैं, यही रूपातीत ध्यान कहलाता है।'
इस ध्यान में ध्याता और ध्येय का भेद समाप्त होकर एक रूपता प्रकट होती है अर्थात् साधक सिद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ध्याता और ध्येय की इस एकरूपता को समरसी भी कहा जाता
इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा क्रमशः शरीर, अक्षर, सर्वज्ञदेव और सिद्धात्मा का चिन्तन किया जाता है क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
१. त्रैलोकयानन्दबीजं जननजलनिधेनिपात्रं पवित्रं
लोकालोकप्रदीपं स्फुरदमलशरच्चन्द्रकोटिप्रभाढयम् । कस्यामप्यग्रकोटौ जगदखिलमतिक्रम्य लब्धप्रतिष्ठं देवं विश्वकनाथं शिवमजनघं वीतरागं भजस्व ॥ ज्ञानार्णव, ३६.४६ अमूर्तस्य चिदानन्दरूपस्थ परमात्मनः ।
निरन्जनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद्रु पजितम् ॥ यो०शा० १०.१ ३. चिदानन्दमयं शुद्धममूर्त परमाक्षरम् ।
स्मरेद्य त्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ।। ज्ञानार्णव, ४०.१६ ४. अनन्यशरणीभूय स तस्मिन् लीयते तथा ।
व्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयैनैक्यं तथा वजेत् ॥ सोऽयं समरसमिवास्तदेकीकरणं मतम् ।
आत्मा यदपृथक्त्वेन लीयते परमात्मनि ।। योगशास्त्र २०.३-४ तथा—पृथक्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स मुनिः साक्षाद्यथान्यत्वं न बुध्यते ॥ ज्ञानार्णव, ४०,३०
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