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210 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
मन्त्र एवं वर्णों के ध्यान में समस्त पदों का स्वामी 'अह' माना गया है, जो रेफ से युक्त कला एवं बिन्दु से आक्रान्त अनाहत मन्त्रराज है ।1 इस ध्यान के विषय में बतलाया गया है कि साधक को एक सुवर्णकमल की कल्पना करके उसके म यवर्ती कणिका पर विराजमान निष्कलंक निर्मल चन्द्र की किरणों जैसे आकाशवाणी एवं सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त 'अहं' मन्त्र का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् मुखकमल में प्रवेश करते हुए भ्र लता में भ्रमण करते हुए, नेत्र पत्रों में स्फरायमान होते हुए, भालमण्डल में स्थित होते हए, उज्ज्वल चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करते हुए ज्योतिर्मण्डल में भ्रमण कर सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त कुंभक के द्वारा इस मन्त्रराज का चिन्तन एवं मनन करना चाहिए।
इस प्रकार इस मन्त्रराज की स्थापना करके मन को क्रमशः सूक्ष्मता की ओर 'अहं' मन्त्र पर केन्द्रित किया जाता है अर्थात अलक्ष्य में अपने को स्थिर करने पर साधक के अन्तःकरण में एक ऐसी ज्योति प्रकट होती है । जो अक्षय तथा इन्द्रियों के अगोचर होती है। इस ज्योति का नाम आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
प्रणव का ध्यान
इसमें साधक हृदयकमल में स्थित शब्द ब्रह्म-वचन विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण, स्वर, व्यंजन से युक्त, पंच परमेष्ठी के वाचक मूर्धा में स्थित-चन्द्रकला से झरते हुए अमृत के रस से सराबोर
१. यद्वामन्त्राधियं धीमान/धोरेफसंयुतम् ।
कलाविन्दुसमाक्रान्तमनाहतयतं तथा ॥ यो० शा०, ८.१८
तथा मिलाइए ज्ञानागंव, ३८.७-८ २, (क) कनकाम्बोजगर्भस्थं सान्द्रचन्द्राशु निर्मलम् ।
गगने संचरन्तं च व्याप्नुवन्तं दिशः स्मरेत् ॥ यो० शा० ८.१६
तथा दे. वही, ८.२०-२२ (ख) ज्ञानार्णव, ३८.१६-१६ ३. क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिरं मनः ।
दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तज्योतिरत्यक्षभक्षयम् ॥ ज्ञानार्णव, ३८.२८
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