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योग : ध्यान और उसके भेद
महामन्त्र प्रणव का ध्यान करता है'। इसकी विशेषता यह है कि वह स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण में लाल, क्षोभित कार्य में मूंगे के समान, द्वेष में कृष्ण, कर्मनाशक अवस्था में चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वर्ण का होता है ।" इस ध्यान से यह सूचित होता है कि ओंकार का ध्यान आश्चर्यजनक एवं लौकिक कार्यों के लिए भी उपयोगी होता है और कर्मक्षय में भी उपयोगी होता है ।
पंच परमेष्ठी मन्त्र का ध्यान
इसके अन्तर्गत आठ पंखुड़ी वाले सफेद कमल का चिन्तन होता है । उस कमल की कणिका में स्थित सात अक्षर वाले नमो अरिहंताणं इस पवित्र मन्त्र का चिन्तन किया जाता है । फिर साधक सिद्ध आदिक चार मन्त्रों का दिशाओं के पत्रों में क्रमशः अर्थात् पूर्वदिशा में नमो सिद्धाणं का, दक्षिण दिशा में नमो आयरियाणं का पश्चिम दिशा में नमो उवज्झायाणं का और उत्तर दिशा में नमो लोए सव्वसाहूणं का चिन्तन करता है । विदिशा वाली चार पंखुड़ियों में अनुक्रम से चार चूलिकाओं का अर्थात् अग्नेय कोण में एसो पंच णमुक्कारो का, नैऋत्यकोण में सव्यपावपणासणी का, वायव्य कोण में मङ्गलाणं च सव्वेसि का और ईशान कोण में पढमं हवइ मंगलं का ध्यान होता है | 3
आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार पूर्वादि चार दिशाओं में तो नमो अरिहंताणं आदि का तथा चार विदिशाओं में क्रमशः रत्नत्रय सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः सम्यक्चारित्राय नमः तथा सम्यक्तपसे
१. तथा हृत्पद्ममध्यस्थं शब्द ब्रह्म ककारणम् ।
स्वरव्यञ्जनसंवीतं वाचकं परमेष्ठिनः ॥ यो० शा०, ८.२६ तथा ३० तथा मिलाइए ज्ञानार्णव, ३८.३३-३५
२. पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये क्षोभणे विद्र मप्रभम् ।
कृष्णं विद्वेषणं ध्यायेत् कर्मघातिशशिप्रभम् । यो० शा०, ८.३२
३.
तथा - जाम्बूनदनिभं स्तम्भे विद्वेषे कज्जलत्विषम् ।
ध्येयं वश्यादिकं रक्तं चन्द्राभं कर्मशातने ।। ज्ञाना० ३८.३७
अष्टपत्रे सिताम्भोजे कणिकायां कृतस्थितिम् ।
आयं सप्ताक्षरं मन्त्रं पवित्रं चिन्तयेत्ततः ॥ यो० शा० ८.३३ व ३४
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