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________________ योग : ध्यान और उसके भेद 209 उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं ।। पदस्थ का अर्थ ही है पदों (अक्षरों) पर ध्यान केन्द्रित करना । इस ध्यान का मुख्य आलम्बन है—शब्द, क्योंकि आकाशादि स्वर तथा ककररादि व्यंजन से ही शब्दों की उत्पत्ति होती है । अतः इसे वर्णमातृका ध्यान भी कहते हैं , जो पांच प्रकार से निष्पन्न होता है। . अक्षरध्यान के बाद शरीर के तीन केन्द्रों अर्थात् नाभिकमल, हृदयकमल और मुख कमल की कल्पना की जाती है और नाभिकमल में सोलह पंखुडिया वाले कमल को कल्पना करके उसमें अ, आ आदि सोलह स्वरों का ध्यान करने का विधान है। हृदयकमल में कार्णिका एवं पत्रों सहित चौबीस दल वाले कमल की कल्पना करके उस 'क' वर्ग आदि पांच वर्गों के व्यंजनों का ध्यान करने का विधान है। तथा मुखकमल में अष्ट पत्रों से सुशोभित कमल के ऊपर प्रदक्षिणा क्रम से विचार करते हुए प्रत्येक य, र, ल, व, श, ष, ह, इन आठ वर्गों का ध्यान करने का विधान है। इस प्रकार से ध्यान करने वाला योगी सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है और उसका संदेह नष्ट हो जाता है : श्रुतज्ञानाम्बुधः पारं प्रयाति विगतभ्रमः ।। १. क) यत्सदानि पवित्राणि समालम्व्य विधीयते । तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगैः ॥ यो० शा० ८.१ (ख) पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते । तत्पदस्यं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ॥ ज्ञाना० ३८.१ २. (क) संस्मरन मातृकामेवं स्यात् श्रुतज्ञानपारगः ॥ यो० शा०, ८.४ (ख) ध्यायेदनादिसिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् । निःशेषशब्दविन्यासजन्मभूमि जगन्नुताम् ।। ज्ञाना०, ३८.२ ३. दे० योगशा० ८.२ ४. वही, ८.३ तथा-चतुर्विंशतिपत्राढयं हृदि कजं सकणिकम् । तत्र वर्णानिमान्ध्यायेत्संयमी पञ्चविंशतिम् ॥ ज्ञाना० ३८.४ ५. (क) वक्त्राब्जेऽष्टदले वर्णाष्टकमन्यत्ततःस्मरेत् । योगशास्त्र. ८.४ (ख) ततो वदनराजीवे पत्राष्टकविभूषिते । परं वर्णाष्टकं ध्यायेत्सञ्चरन्तं प्रदक्षिणम् ॥ ज्ञानार्णव, ३८.५ ६, वही, ३८.६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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