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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
जा सकता है ।' साधक समस्त चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म स्वरूप में लीन हो जाए । यह नहीं सम्भव है जहाँ शोरगुल झगड़ा और दूषित वातावरण न हो तथा ऐसा स्थान निर्जन, पहाड़, गुफा आदि ही हो सकता है |"
धर्मध्यान के भेद-प्रभेद
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शास्त्रकारों ने धर्म ध्यान के प्रमुख चार भेद बतलाए हैं, यहां पर क्रमशः उनका विवेचन किया जाता है |
१. आज्ञाविचय धर्मध्यान
प्रमाणपूर्वक बोध कराने वाले प्रवचन को 'आज्ञा' कहते हैं और अर्थों का निर्णय करना 'विचय' कहलाता है । आज्ञा द्वारा पदार्थों के स्वरूप से परिचित होना ओर अरिहन्त भगवान् की आज्ञा को सत्य मानकर दृढ़ श्रद्धा के साथ तत्त्वों का चिन्तन-मनन करने के लिए मनोयोग लगाना आज्ञाविचय धर्मध्यान है | इस प्रकार से इस ध्यान में मुख्यतः सर्वज्ञ वचनों का आलम्बन लिया जाता है और मन को सूक्ष्म से १. जच्चिय देहावत्या जियाणझाणोव रोहिणी होई ।
झज्जा तदवत्यो ठिओ निसगो निवण्णो वा ।। ध्यान श०, गा० ३६ दिवागुराजा निकृत्याचिन्त्यविक्रमः ।
२.
स्थानामाश्रयते धन्यो विविक्तं ध्यानसिद्धये ॥ ज्ञानार्णव, २७.२० तथा - तीर्थं वा स्वस्थताहेतु यत्तद्वा ध्यान सिद्धये ।
कृतासनजयो योगी विविक्तं स्थानमाश्रयेत् ॥ यो० शा०. ४.१२३ ३. दे० भगवतीसूत्र शतक २५, उद्दे० ७ स्थानांगसूत्र प्र० उ० सूत्र १२; औपपातिकसूत्र तपधिकार |
तथा - (क) आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् ।
४.
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इत्थं वा ध्येयभेदेन धर्मध्यानं चतुर्विधम् ॥ यो० शा०, १०.७ (ख) आज्ञापायविपाकानां क्रमशः संस्थितेस्तथा ।
विजयो यः पृथक् तद्धि धर्मध्यानं चतुविधम् ॥ ज्ञाना० ३३.५ तथा-तत्त्वानुशासन, श्लोक ६८
दे० (क)
स्थानांगसूत्र, पर व्याख्या, पृ० ६८४
( ख )
योगशास्त्र ४.८-६
(ग) ज्ञानार्णव, अ० ३०
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