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योग : ध्यान और उसके भेद
सूक्ष्मता की ओर बढाया जाता है ।
२. अपायविचय धर्मध्यान
संसार में जितने भी अनर्थ होते हैं । उन सब का मूल कारण राग, द्वेष, कषाय, प्रमाद, आसक्ति एवं मिथ्यात्व है । इन राग-द्वेषादि दोषों से छुटकारा पाने के लिए मनोयोग लगाना 'अपायविचय' धर्मध्यान है ।" योगशास्त्र के अनुसार राग-द्वेष से उत्पन्न दुर्गति के कष्टों का चिन्तन 'अपायविचय' धर्मध्यान है ।" इस ध्यान में कर्मों के विनाश के उपायों पर सोचा जाता है |
३. विपाकविचय धर्मध्यान
चित्
निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा का स्वरूप विशुद्ध निर्मल, सत्, और आनन्द रूप है, किन्तु कर्मों के कारण आत्मा के वे गुण दब जाते हैं । कर्मफल का अवसर आने पर उसके विषय में शास्त्र निर्दिष्ट सिद्धान्तों के अनुरूप चिन्तन करना, कर्म सिद्धान्त में उपयोग लगाना एवं जिस रूप में विपाक का उदय हो रहा हो उसके मूल का अन्वेषण करना विपाकविचय धर्मध्यान है ।' 'विपाक' शब्द कर्मों के शुभ-अशुभ फल के उदय का द्योतक है । अतः कर्मों की विचित्रता अथवा कर्मफल के क्षणक्षण में उदित होने की प्रक्रियाओं के बारे में विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है' अभिप्राय यह है कि इस ध्यान में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से चिन्तन किया जाता है कि उदय, उदीरणा कैसे और
१. स्थानांगसूत्र, पृ० ६८४
२. रागद्वेषकषायार्जियायमानान् विचिन्तयेत् ।
यत्रापायांस्तदपायविचयध्यानमिष्यते । यो० शा०, १०.१०
३. अपायविचयं ध्यानं तद्वदन्ति मनीषिणः ।
४.
५.
अपायः कर्मणां यत्र सोपायः स्मर्यते बुधैः ॥ ज्ञानार्णव, ३४.१
दे० स्थानांगसूत्र, पृ० ६८१
स विपाकः इति ज्ञेयो यः स्वकर्मफलोदयः ।
प्रतिक्षणसमुद्भूतश्चित्ररूपः शरीरिणाम् ॥ ज्ञानार्णव, ३५.१ तथा - प्रतिक्षणसमुद्भतो यत्र कर्मफलोदयः ।
चिन्तये चित्ररूपेः स विपाकविचयोदयः ॥ यो० शा०, १०.१२
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