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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन प्रवचनसार की तात्पर्याख्यावृत्ति के कर्ता के अनुसार धर्म वह हैं-'जो मिथ्यात्व, राग आदि में हमेशा सँसरण कर रहे भवसंसार से जो प्राणियों को ऊपर उठाता हैं और विकार रहित शुद्ध चैतन्यभाव में परिणत करता है। परमात्मप्रकाशकार के अनुसार धर्म जीव को मिथ्यात्व, रोगादि परिणामों से बचाता है और उसे अपने निजी शुद्धभाव में पहुंचा देता है जिससे सत्त्व अहर्निश कल्याण मार्ग में संलग्न रहता
महापुराण और चारित्रसार में भी धर्म के विषय में यही आशय प्रकट किया गया है । द्रव्यसंग्रह को टीका में भी ऐसा ही मिलता है ।।
जैन आचार्यों ने धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है और वह अहिंसा, संयम और तप रूप है। जबकि तीर्थकरों ने धर्म को दश लक्षण वाला बतलाया है। वे हैं-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य ।' इन धर्मों पर वृत्ति लिखते हुए आचार्य अभयदेव ने जो व्याख्या की है, वह भी उपयुक्त चर्चा की पुष्टि करती है। समवायांगसूत्र' और तत्त्वार्थ१. मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिनमुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये
धरतीति धर्मः । प्रवचनसार, तात्पर्याख्यावृत्ति, ७.६ २. भाव विसुद्धणु अप्पाणउ धम्मभणे विणु लेहु ।
चण्गइदुक्खहं जो धरइ जीव पडत उएहु ॥ परमात्म प्र०, २.६८ ३. महापुराण, २.३७ ४. चारित्रसार, गा० ३ ५. निश्चयेन संसारपतन्तमात्मानं धरतौति विशुद्धज्ञान-दर्शनलक्षण-निजशद्धात्मा
भावनात्मभावनात्मको धर्मः । व्यवहारेण तत्साधनार्थदेवेन्द्रादिवन्द्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमादिदशप्रकारो धर्मः । द्रव्यसंग्रह, टीका, पृ० ३५
धम्मो मंगलमुकिळं अहिंसा संयमो तवो । दशवै०का० १.१ ७. दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मह वे, लाघवे, सच्चे,
संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे ॥ स्थानांगसूत्र १०.१६ ८. खंतीयमद्वज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे ।
सच्चं सोयं आकिंचण बमं च जइ धम्मो । स्थानांगसूत्र वृत्ति पत्र १८३ ६. दसविहे समण धम्मे पण्णत्ते, तं जहां-खंती, मुत्ती, अज्जवे, ___ मछवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, पियाए बंभचेरवासे ॥ समवायांग १०
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