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योग : ध्यान और उसके भेद
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इसका अर्थ होता है-धारण करना । कुछ विद्वान् इसे 'ध' धरणे धातु से निष्पन्न मानते हैं, जिसका अर्थ हैं--घरना अर्थात् जैसे एक वस्तु को किसी स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर धर देना धर्म है, उसी प्रकार संसार के प्राणियों को बुरी गति में जाने से जो बचाता है या दुःखों से छुटकारा दिलाता है, साथ ही उत्तम सुख की प्राप्ति भी जो कराता है अथवा उच्चगति में ले जाता है, वह धर्म ही तो है।
धर्म गिरे हुए जीवों को उठाकर उन्नत या उच्च स्थान पर स्थापित करता है । इसी लिए यह धर्म है। इस पर जब गहराई से विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि धारण करने और धरने में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं हैं, अपितु ये दोनों हो एक दूसरे पर निर्भर हैं। धर्म में दोनों ही बातें आ जाती हैं । जो जीव संसार के दुःखों में उलझ कर पतित बना पड़ा है, वह यदि उनसे छुटकारा चाहता है तो वह धर्म को धारण करेगा और धर्म भी उसे पतित स्थान से उठाकर उत्तम सूख वाले स्थान में पहुंचा देगा।
इस संसार में जितने भी जीव हैं वे भी सभी दुःखी हैं। अतः सभी कोई ऐसा स्थान चाहते हैं जहां पर थोड़ासा भी दुःख न हो । ऐसे अभीष्ट स्थान पर जो जीव को पहुंचाता है, वही धर्म है। १. दे० धर्मदर्शन मनन और मूल्यांकन, पृ० ५ २. यस्माउजीवं नरकतिर्थयोनिकुमानुषदेवत्वेषु प्रपतन्तं धारयतीति धर्मः ।
उक्त च दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् यस्माद्धारयते यतः । धत्त चैतान् शुभस्थाने तस्माद् धर्म इति स्थितः। दशवैका०, जिन० चूणि, पृ० १५ देशयाभि समीचीनं धर्म कर्मनिवहणम्, संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्त्युत्तमे सुखे ॥ रत्नकरण्डक श्रावकाचार, श्लोक १.२ (क) इष्टे स्थाने धत्त इति धर्मः । सर्वार्थ सिद्धि, ६.२ (ख) धर्मा नीचैः पदादुच्चैः पदे धरति धार्मिकम् ।
तत्राजवज्जवो नीचः पदमुच्चैस्तदव्ययः ॥ पंचाध्य, उत्तरार्ध, श्लोक श्लोक ७१५ धत्ते नरकपाताले निमज्जज्जगतां त्रयम् । योजयत्यपि धर्माऽयं सौख्यमत्यक्षमङिगनाम् ॥ ज्ञाना०, धर्म भावना, २.१२ पृ० ४६
महापुराण, २.२७ (च) तत्त्वार्थवार्तिक, ६.२.३
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