SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 196 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन पाये जाते हैं । कभी-कभी ये यति-मुनियों में भी पूर्व कर्म के उदय से पाये जाते हैं । बाहुल्य से ये संसार के कारण हैं ।" ये दुर्ध्यान हैं, जो जीवों के अनादि काल के संस्कार से बिना ही यत्न के स्वतः निरन्तर उत्पन्न होते हैं ।" अतः दोनों ही सयत्न त्याज्य हैं । ३. धर्म ध्यान धर्म का चिन्तन ही धर्मध्यान है । तब प्रश्न उठता है कि धर्म किसे कहते हैं ? धर्म का स्वरूप धर्म शब्द का प्रयोग भारतीय वाङमय में अनेक अर्थों में किया गया है । अथर्ववेद में इसका प्रयोग धार्मिक क्रियाओं और संस्कारों से उत्पन्न होने वाले गुण के अर्थ में मिलता है ।' छान्दोग्योप नषद् में धर्मशब्द का प्रयोग आश्रमों में विलक्षण कर्त्तव्यों की ओर संकेत करता है । " महाभारत के अनुशासन पर्व में अहिंसा के लिए और वनपर्व में आनृशंस्य के लिए परम धर्म शब्द का उल्लेख किया गया है । मनुस्मृति में आचार को ही धर्म माना गया है । " धर्म शब्द की निष्पत्ति संस्कृत की 'धृ' धारणे धातु से हुई है । " १ इत्या रौद्र गृहिणामजस्रं ध्याने सुनिन्धे भवतः स्वतोऽपि । परिग्रहारम्भकषायदोषैः कलङ्कितेऽन्तःकरणे विशङ्कम् ॥ वही, २६.४१ २. क्वचित्क्वचिदमी भावाः प्रवर्त्तन्ते मुनेरपि । प्राक्कर्मगौरवाच्चित्रं प्रायः संसारकारणम् ॥। वही, २६.४१ ३. वही, २६४३ ४. अथर्थवेद. ६.१७ ५. छान्दोग्योपनिषद्, १.१३ ६. महाभारत, अनुशासनपर्व ११५.१ ७, वही, वनपर्व, ३७३.७३ ८. आचारः प्रथमो धर्मः । मनुस्मृति १.१०८ ६. धारणात् धर्म इत्याहुः । वाल्मीक रामायण ७.५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy