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योग : ध्यान और उसके भेद
195 (१) रौद्रध्यानी की प्रवृत्ति हिंसादि पांच आस्रवों में पाई जाती है।
जिसकी प्रवृत्ति दोषों के सेवन में लगी हुई है और जिसमें प्राय: द्वेष अर्थात् दूसरों को मारने अथवा उन्हें किसी न किसी तरह
नुकसान पहुंचाने की तीव्र इच्छा रहती है। (२) रौद्रध्यानो की प्रवृत्ति दोषों में बहुलता होने के कारण उसमें पापों
की अधिकता पाई जातो है। (३) रौद्रध्यानी की प्रवृति अज्ञानमयी होती है क्योंकि कुशास्त्रों के
अध्ययन से उसके ऐसे ही संस्कार बन जाते हैं। (४) यह रौद्रध्यानी स्वकृत पानों का अन्त तक प्रायश्चित नहीं करता।
यही रौद्र ध्यानी के चार लक्षण हैं किन्तु आचार्य शुभ चन्द्र क्रूरता, दण्ड, पारुष्यता, वञ्चकता और कठोरता ये चार रौद्रध्यान के
लक्षण मानते हैं। रौद्र ध्यानी की लेश्याएं
इस ध्यानो के परिणाम चूंकि क्रूर होते हैं अतः इसकी लेश्याएं भी अप्रशस्त अर्थात् कृष्ण नील और कापोत होती हैं । रौद्रध्यान प्रायः पंचम गणस्थान पर्यन्त पाया जाता है । यह क्षायोपशमिकभाव है इसका काल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है। इस ध्यान का आधार (object) सदैव खोटी वस्तु ही होती है।
आर्त एवं रौद्र दोनों ही ध्यान निन्दनीय हैं। ये प्रायः आरम्भ परिग्रह और कषायों से मलिन अन्तःकरण वाले ग्रहस्थों में स्वभावतः
१. करता दण्डपारूष्यं वञ्चकत्वं कठोरता ।
निस्त्रिशत्वं च लिगानि रौद्रस्योक्तानि सूरिभिः ॥ ज्ञाना० २६.३७ २. कापोय-नील-कालालेस्साओ तिव्वसंकिलि ठाओ।
रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्पपरिणाम जणियाओ। ध्यान श०, गा २५ तया-कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वभ्रपातफलाङिकतम् ।
रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात्पञ्चगुणभूमिकम् ॥ ज्ञानार्णव, २६.३६ ३. अबिरय देसासंजय जणमणसंसेवियमहणं । ध्यान शत०, गा० १३ ४. क्षायोपशमिको भावः कालश्चान्तर्मुहर्तकः ।
दुष्टाशयवशदेतदप्रशस्तावलम्बनम् ॥ ज्ञानार्णव, १६.३६
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