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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
लिए भोग्य पदार्थों का जुटाना, उन्हें सुरक्षित रखने के लिए भोगों के प्रधान साधन रूप धन की रक्षा करना, परिग्रह में लीन रहना, नीतिअनीति, न्याय-अन्याय आदि की उपेक्षा करके धन-संग्रह करने की चिन्ता करना, सभी को शंका की दृष्टि से देखना जो-जो उस धन के भागीदार हैं, उनसे द्वेष करना, इत्यादि रूपों में किया गया चिन्तन ही विषय संरक्षानुबन्धी रौद्रध्यान है।। क्रूर परिणामों से युक्त होकर तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्र से शत्रुओं को नष्ट करके, उनके ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति को भोगने की इच्छा रखना अथवा शत्रु से भयभीत होकर अपने धन, स्त्री, पुत्र राज्यादि के संरक्षार्थ भांति-भांति की चिन्ता करना ही विषय संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है।'
इस प्रकार रौद्रध्यानी सर्वदा अपध्यान में लीन रहता है और दूसरे प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने के उपाय सोचता रहता है। फलतः वह भी दूसरों के द्वारा पीड़ित होता है, ऐहिक परलौकिक भय से आतंकित होता है । अनुकम्पा से रहित, नीचकर्म में निर्लज्ज एवं पाप में आनन्द मनाने वाला होता है। इस तरह यह रौद्रध्यान संसार का मूल तथा नरक गति का कारण है।
रौतध्यान के लक्षण
शास्त्रकारों ने रौद्रध्यानी के चार लक्षण बतलाए हैं१. स्थानांगसूत्र १२ पर व्याख्या, पृ० ६८१, भगवतीसूत्र, शतक २५, उद्दे
७ पर व्याख्या, औपपातिकसूत्र, तपोधिकार तथा—सदाइविसयसाहणधणसारक्खणपरायणमणिटठं ।।
सत्वामिसंकणपरोवधायकलुसाउलं चित्तं । ध्यान श०, गा० २२ २. आरोग्य चापं निशितैः शरोनिकृत्य वैरिव्रजमुद्धताशम् ।
दग्ध्वा पुरग्रामवराकराणि प्राप्स्येऽहमै श्वर्यमनन्यसाध्यम् ॥ ज्ञाना० २६ ३०
३. रोद्दच्झाण संसारवद्धणं नरयगइमूले ॥ ध्यान शतक, गाथा २४
रुदस्सणं झाणस्स चत्तारिलक्खणापण्णता तं जहा-ओसणेणदोसे, बहुदोसे, अन्नाणदोसे, आमरणंतदोसे । स्थानाँ०, प्र० उ०. सूत्र १२ भगवतीसूत्र उद्दे० १, शतक २५; तथालिंगाइतस्स उस्सण्ण बहुलनानाविहामरण दोसा । तेसिंचिय हिंसाइस बाहिरकरणोवउत्तस्स ॥ ध्यान श०, गा० २६
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