________________
योग : ध्यान और उसके भेद
सूत्र' में भी ऐसा ही मिलता है ।
स्वामिकार्तिकेय ने अपने ग्रंथ स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा में पूर्व कथित दश लक्षण रूपधर्म से भिन्न परिभाषा दी है । उनके अनुसार वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है । क्षमा आदि दश प्रकार के भाव धर्म है । रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र) धर्म है और जोवों की रक्षा करना भी धर्म है । इस प्रकार सत्त्वों का जो स्वभावरूप सदाचरण है वही वास्तविक धर्म है ।
वत्थु सुहावो धम्मो, खमादि दस विहो धम्मो रयणत्तयं च धम्मो और जीवाणं रक्खणं धम्मो में अलग-अलग जिन भावों की अभिव्यक्ति की गई है, वे सब इसमें समाहित हो जाते हैं । आत्मा का अपना जो मूल स्वभाव है, उसके जो निजी परिणाम है, उस स्वभावरूप परिणमन को चारित्र में प्रतिफलित होना बतलाया गया है । इसलिए चारित्र ही धर्म है-चारितं खलु धम्मो | 3
रयणत्तयं च धम्मो जिस दृष्टि से कहा गया है वह धर्म के व्यवहारिक-सांसारिक दृष्टिकोण को लक्षित करता है । ऐसे ही जीवाणं रक्खणं धम्मो भी व्यवहारिक दृष्टिकोण को ही अभिव्यक्त करता है । और चरितं खलु धम्मो की दृष्टि निश्चयात्मक और आध्यात्मिक धरातल पर खड़े रहने वाले की दृष्टि है अर्थात् नीचे से ऊपर की ओर देखने से रयणत्तयं च धम्मो का कथन किया गया है, जबकि ऊपर से देखने वाली दृष्टि से चरितं खलु धम्मो का कथन किया गया है । इस प्रकार ये चाहे देखने में भिन्न प्रतीत होते हैं फिर भी तात्त्विक दृष्टि से इनमें कोई अन्तर नहीं है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि मानव का आचरण ही धर्म है ।
धर्म ध्यान का अधिकारी
यह प्रशस्त ध्यान माना गया है कारणकि इस ध्यान से जीव का
उत्तमः क्षमामार्दवार्जव शौचसत्य संयमतपस्त्यागा किञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । तत्त्वार्थसूत्र, ६.६
धम्मो वत्थु सुहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो ।
रयणत्तयं च धम्मं जीवाणं रक्खणधम्मो || स्वामिकार्ति०, ४.७८
दे० प्रवचनसार, गा० ७
१.
२.
३.
199
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org