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192 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन निर्दयी पुरुषों की निरन्तर संगति हो, स्वभाव से ही उसमें क्रूरता हो, दुष्ट भाव हो, तो उसको प्रशान्त चित्तवाले पुरुषों ने रौद्रध्यान कहा है ।।
यह ध्यान अशभ अथवा अप्रशस्त है। इसमें कुटिल भावों का चिन्तन होता है। इसमें हिंसा, झूठ, चोरी, धन-रक्षा में लीन होनाः छेदन-भेदन आदि प्रवत्तियों में राग आदि आते हैं। पूर्ववत् इसके भा चार भेद शास्त्रों एवं योग ग्रन्थों में बतलाए गये हैं। वे हैं--हिंसानुबंधी, मृषानुबंधी, चौर्यानन्द एवं विषयसंरक्षानुबन्धी। (१) हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान
अत्यधिक क्रोध से जकड़े हुए मन का लक्ष्य जीवों को पीटने, बींधने, बान्धने, जलाने, चिह्नित करने और मार डालने इत्यादि पर आ जाता है। यह स्थिति निर्दय हृदय वाले को होती है ओर ऐसा सत्त्व नरकगामो होता है। जीवों के समूह को अपने से तथा अन्य के द्वारा मारे जाने, पीड़ित किए जाने, ध्वंस किये जाने और धात करते-कराने पर जो हर्ष का कारण माना जाता है, उसे ही हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान कहते हैं।'
(२) मृषानुबन्धी रौद्रध्यान
दूसरों को ठगने वाले, मायावी, छिपकर पापाचरण करने वाले पिशुन, चुगल खोर, झूठा कलंक लगाने वाल, हिंसाकारी बचन बोलने
१. हिंसाकर्माणि कौशलं निपुणतापावोपदेशं भृशं ।
द्राक्ष्यं नास्तिकशालने प्रतिदिनं प्राणातिपाते रतिः । संवासः सह निर्दये विरतं नैसगिकी क्रूरता
यत्स्याद्दे हलतां तदत्र गदितं रौद्रं प्रशान्ताशयः ।। ज्ञाना०, २६.६ २. दे० स्थानाँगसूत्र, प्रथम उद्दे. सूत्र १२, भगवती सूत्र ३०७, शतक २५
औयपातिसूत्र, तपोधिकार ३. वही, तथा हिंसाऽयनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम् । तत्त्वार्थसूत्र ९.३६ ४. सत्तवहवेहबंत्रणडहणङ कगमारणाइपणिहाणं ।
अइ कोहगहनत्यनिग्धिणमणसोऽहमविवागं ॥ ध्यान श०, गा० १६ ५. हते निष्पीडिते ध्वस्ते जन्तुजाते कथिते ।
स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धि सा रौद्रमुच्यते ॥ ज्ञाना० २६.४
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