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योग : ध्यान और उसके भेद
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जिससे उनके वियोग में दुःखी होता है। इसलिए इस ध्यान को अशुभ कहा गया है । यह ध्यान संसारभ्रमण का मूल है ।। आर्तध्यान अविरति, देशविरति और प्रमादनिष्ठ संयमधारी को भी होता है। इसलिए इसे समस्त प्रमादों का मूल समझकर साधुजनों को इसे छोड़ देना चाहिए।
यह ध्यान जावों को अनादिकाल के अप्रशस्तरूप संस्कार से, बिना पुरुषार्थ के, स्वयं ही उत्पन्न होता है ।
रौद्रध्यान
रौद्र का अर्थ है-क्रोध, बर्बर, भयानक आदि । इस अवस्था में मनुष्य जो चिन्तन करता है, उसे ही रौद्रध्यान कहा जाता है। तत्त्वदर्शी पुरुषों ने क्रूर आशय वाले प्राणी को रौद्र कहा है, उस रौद्र प्राणी के भाव, कार्य अथवा परिणाम को ही रौद्र कहते हैं। इसका वर्ण लाल होता है।
चुगली करना, अनिष्ट सूचक वचन बोलना, गाली देना रुखा बोलना यहां तक कि असत्य वचन, जीवघात का आदेश आदि का प्रणिधान (एकाग्र मानसिक चिन्तन) रौद्रध्यान है। यह मायावी, प्रच्छन्न पापी, ठगी करने में निपुण होता है। आचार्य शभचन्द्र के अनुसार जीवों की हिंसा में प्रवीणता हो, पापोपदेश में निपुणता हो, नास्तिक मत में चातुर्य हो, जीव घात करने में निरन्तर प्रगति हो तथा १, एवं चउन्विहं रोगबोसमोहं कियस्स जीवस्स ।
अट्टज्झाणं संसाइवद्धणं तिरियगइमूलं ।। वही, गा० १० २. तदविरयदेसविरयपमायपरसंजयाणुगं झाणं ।
सबप्यमायमूलं बज्जेव्वं जइजणेणं ॥ ध्यान श०, गा० १८
तथा ज्ञाना०, २५.३६ ३. एतद्विनापि यत्नेन स्वमेव प्रसूयते ।
अनायसत्सुमुद्भूत संस्कारादेव देहिनाम् ॥ ज्ञानार्णव, २५.४१ ४. दे० संस्कृत हिन्दी कोश, पृ० ८६३ ५. रुद्रः क्रूराशयः प्राणी प्रणीतस्तत्त्वशिभिः ।
___ रुद्रस्य कर्मभावो वा रौद्रमित्यभिधीयते ॥ ज्ञानार्णव, २६.२ ६. पिसुणासन्भासयभूय धायाइबयणपणिहाणं ।
मायाविणोइसंघणपरस्सपच्छन्नपावस्स ॥ ध्यान श०, गा० २० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
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