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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक अपना आत्मविकास करते है । सालम्बन ध्यान ही जब सांसारिक वस्तुओं से हटकर आत्मा के वास्तविक स्वरूप दर्शन में तीव्र अभिलषित हो जाता है, तब अनालम्बन ध्यान की निष्पत्ति होती है और आत्म साक्षात्कार होने पर ध्यान रह ही नहीं जाता क्योंकि यह निरालम्बन ध्यान एक विशिष्ट प्रयत्न है, जो केवलज्ञान प्राप्त होने से पूर्व अथवा योगनिरोध करते समय किया जाता है ।
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इस प्रकार निरालम्बन ध्यान की सिद्धि हो जाने पर संसार अवस्था उच्छिन्न हो जाती है और केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इसके बाद ही अयोगावस्था प्रकट होती है, जो परम निर्वाण का ही अपर नाम है ।"
ध्यान के पर्याय के रूप में तप, समाधि, घीरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तः संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव आदि का प्रयोग भी किया गया है ।
ध्यान के तत्त्व
ध्यान के तीन प्रमुख तत्त्व माने गये हैं- ( १ ) ध्याता, (२) ध्येय और (३) ध्यान', जबकि आचार्य शुभचन्द्र ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान का फल ये चार तत्त्व मानते हैं ।
१. ध्याता
जो मुमुक्षु हो अर्थात् मोक्ष की इच्छा रखने वाला हो, संसार से
अप्रमत्तः सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिरः ।
पूर्ववित्संवृत्तो धीरो ध्याता संपूर्णलक्षणः ॥ ज्ञाना०, २८.२६
१.
२. एयभिम मोहसागरतरणं सेढी य केवलं चेव ।
तत्तो अजोगज़ोगो कमेण परमं च निव्वाणं ॥ यो० वि०, गा० २० ३. योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तः निग्रहः ।
अन्तःसंलनिता चेति तत्पर्यायाः स्मृताः बुधैः ॥ तत्त्वानुशासन, पृ० ६१ ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याताध्येयं तथा फलम् । यो० शा०, ७१ ध्याताध्यानं तथा ध्येयं फलं चेति चतुष्ट्यम् । ज्ञाना०, ४.५
४.
५.
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