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योग : ध्यान और उनके भेद
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लीन होने का प्रयास किया जाता है। इस अवस्था को तत्त्वानुशासन में समरसीभाव और ज्ञानार्णव में सवीर्य ध्यान कहा है । तत्त्वार्थसूत्र में उत्तमसंहनन वाले के एकाग्रचिन्ता निरोध को ध्यान कहा गया है । शास्त्र में सहनन छः प्रकार के बतलाए गए हैं। -(१) वज्र ऋषभनाराच संहनन,(२) ऋषभनाराच संहनन, (३) नाराच संहनन, (४) अर्द्धनाराच संहनन, (५) कीलिका संहनन और (६) सम्वर्तक संहनन । इनमें प्रथम तीन संहनन ध्यान के लिए उत्तम माने गये हैं। फिर भी मोक्ष का अधिकारी वज्र ऋषभनाराच संहनन संस्थान वाला साधक ही होता है क्योंकि योगी नाना आलम्बनों में स्थित अपनी चिन्ता को जब किसी एक आलम्बन में स्थिर करता है तब उसे एकाग्र निरोधयोग की प्राप्ति होती है, जिसे समाधि तथा प्रसंख्यान कहा गया है।'
इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि आलम्बन दो प्रकार के माने गए हैं-रूपी और अरूपी । अरूपी आलम्बन मक्त आत्मा को माना गया है तथा इसे अतीन्द्रिय होने के कारण अनालम्बन योग भी कहा है।
रूपो आलम्बन इन्द्रिय गम्य माना गया है। यद्यपि रूपी अथवा सालम्बन ध्यान के अधिकारी योगी छठे गणस्थान तक अपने चरित्र का विकास करने में समर्थ होते हैं, जबकि अनालम्बन योगो के अधिकारी
१. योगप्रदीप, गा० १३८ २. तत्त्वानुशासन, गा० १३७ ३. दे० ज्ञानार्णव, अध्याय ३१, सवीर्य ध्यान का वर्णन ४. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । तत्त्वार्थसूत्र ६.२७ ५. छबिहे संघयणं पण्णते, तं जहा–वइरोसभणारायसघयणे, उसभणाशय
संचयणे, नारायसंवयगे, अद्धनारायसंचयणे, खीलियसंघयणे, द्ववट्ठसंघयणे ।
स्थानांगसूत्र, प्र० उ०, सु०६ ६. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० ६२५ ७. तत्त्वानुशासन, गा० ६०-६१ ८. आलंवणं पि एयं रूविमरुवी य इत्य परमु ति ।
तग्गुणपरिणइरूको सुमुमो अणालम्वणो नाम ॥ योगविशिका, गा० १९ ६, अप्रमत्तप्रमर्तीख्यो धर्मस्थतौ यथायथम् ॥ ज्ञानार्णव, २८.२५
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