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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
ध्यान और समता परस्पर सापेक्ष हैं। ध्यान के बिना समता की उपलब्धि नहीं हो सकतो और समभाव के बिना ध्यान की सिद्धि होना भी असम्भव है । ध्यानयोग के साधक को समतायोग आवश्यक है और समतायोग के साधक को ध्यानयोग भी परमावश्यक है।
समत्व की प्राप्ति के बाद साधक को ध्यान करना चाहिए। समभाव की प्राप्ति के बिना ध्यान करना आत्मविडम्बना है क्योंकि समत्व के अभाव में ध्यान लगाना सम्भव नहीं है ।। समभावरूपी सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और माह का अन्धकार नष्ट कर देने पर योगी अपनी आत्मा में परमात्म स्वरूप के दर्शन करने लगता है। स्वयं आत्मा परमात्म स्वरूप में अवस्थित हो जाती है ।
विषयों से विरक्त ओर समभाव से युक्त चित्त वाले साधकों की कषायरूपी अग्नि शान्त हो जातो है और सम्यक्त्व रूपो दीपक प्रदाप्त हो जाता है।
इस प्रकार समता को साधना से साधक निर्भय हो जाता है। उसके कर्म बन्धन ढीले पड़ जाते हैं । अतः समता साधक के आध्यात्मिक विकास को चरम सीमा मानो जा सकती है क्योंकि सम्यक्त्वरूपी जलाशय में अवगाहन करने वाले पुरुषों का राग द्वेष-मल सहसा ही नष्ट हो जाता है।
५. वृत्तिसंक्षय
वत्तिसंक्षय अध्यात्म योग का अन्तिम सोपान है। इसका स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि भावना, ध्यान और समता के
१. समत्वमवलम्व्याय ध्यान योगी समाश्रयेत् ।
विना समत्वमारब्धे ध्याने स्वात्माविडम्बयते ।। योगशास्त्र ४.११२ २. रागादिध्वान्तविध्वंसे, कृते सामायिकांशुना ।
स्वस्मिन् स्वरूपं पश्यन्ति योगिनः परमात्मनः । वही, ४.५३ ३. विषयेभ्यो विरक्तानां साम्यवासितचेतसाम् ।
उपशाम्येत् कषायाग्निर्बोधि दीपः समुन्मिषेत् ॥ योगशास्त्र, ४.१११ ४. अमन्दानन्द जनने साम्यवारिणि मज्जताम् ।
जायते सहसा सा रागद्वेषमलक्षयः ॥ योगशास्त्र, ४.५०
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