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योगविन्दु की विषय वस्तु का अन्धकारावरण नष्ट हो जाता है, चित्त सर्वथा निर्मल हो जाता है तथा सत्त्व को मोक्ष-मन्दिर का द्वार स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है।
४. समता
समता भी साधक के जीवन में अत्यधिक महत्व रखती है। गीता में समत्व को ही योग कहा है। अविद्या (मूढ़ता) द्वारा कल्पित इष्टअनिष्ट पदार्थों में की जाने वाली इष्टानिष्ट कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझ कर उनमें उपेक्षा धारण करना समता है। और उसमें निविष्ट मन, वचन और काय के व्यापार का नाम समतायोग है।
- मानव के जीवन में समता के आ जाने अथवा योगी की वत्ति में उसके आने से उनमें अनिर्वचनीय वैशिष्ट्य आ जाता है। इसके कारण वह प्राप्त ऋद्धियों-विभूतियों या चमत्कारिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करता। उसके सूक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है और उसकी आकांक्षाओं, आशाओं के तन्तु टूटने लगते हैं।'
वास्तव में विश्व का कोई भी पदार्थ इष्ट अथवा अनिष्ट कारक नहीं हैं। यह संसार तो न ग्राह्य और न अग्राह्य है, इसमें अथवा इसके समस्त पदार्थों में जो साधक हर्ष-शोक आदि की अनुभूति करता है, वह मोह से प्रभावित होता है। वे विभाव संस्कार हैं, जो न तो आत्मा के गण होते हैं और न ही आत्मा के साथ जिनका कोई सम्बन्ध ही होता है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र है । इस प्रकार के विचार एवं विवेक से आत्मा में रहे हुए विचार वैषम्य का नाश और समताभाव का परिणमन होने लगता है। इस सत परिणाम के द्वारा किए जाने वाले चिन्तन को ही समतायोग वा साम्ययोग कहा जाता है। यही आत्मा का यथार्थ गण भी है। १. समत्वं योग उच्यते । गीता, २.४८ २. अविद्याकल्पितेषूच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु ।
संज्ञानात् तद्व्यु दासेन समता समतोच्यते ।। योगविन्दु, श्लोक ३६४ ३. ऋद्ध यप्रवर्तनं चैव सूक्ष्मकर्मक्षयस्तथा ।
अपेक्षातन्तुविच्छेदः फलमस्थाप्रचक्षते ॥ वही, श्लोक ३६५
तथा दे० योगभेद, द्वात्रिंशिका, श्लोक ६ ४. दे० जैन योग सिद्धान्त और साधना, पृ० ८८
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