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योगबिन्दु की विषय वस्तु
अभ्यास से वृत्तिसंक्षय उद्भावित होता है, जिसका अर्थ आत्मा और कर्म के संयोग की योग्यता का अपगम अर्थात् दूर होना है । दूसरे शब्दों में अनादिकाल से आत्मा के साथ कर्मो का बन्ध होते रहने की वत्ति, स्थिति या अवस्था का संक्षय होना, उनका मिट जाना, वृत्तिसंक्षय है ।"
आत्मा में मन और शरीर के सम्बन्ध से उपलब्ध होने वाली विकल्प तथा चेष्टारूप वृत्तियों का अहर्निश भावव्यापार द्वारा निरोध करना, जिससे वे फिर से उत्पन्न न हों, वृत्तिसंक्षय कहा जाता है अथवा आत्यन्तिक क्षय अर्थात् समूल का नाश होने का नाम वृत्तिसंक्षय योग हैअन्यसंयोगवृत्तीनां यो निरोधस्तथा तथा । अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ॥
वृत्तियों के भेद और कारण
आत्मा की सूक्ष्म एवं स्थूल, आभ्यन्तर तथा बाह्य चेष्टाओं को वृत्ति कहा जाता है । वे आत्मा का अन्य पदार्थों के साथ संयोग होने पर उत्पन्न होती हैं, जिसके कारण वृत्तियां उत्पन्न होती हैं, उसे योग्यता कहा जाता है |” जैसे वृक्ष का तना काट देने पर पत्र आदि की उत्पत्ति होने से नहीं रोका जा सकता वैसे ही संसाररूपी वृक्ष की स्थिति है । वृक्ष को समाप्त करने के लिए उसे जड़ से काटना होता है। ऐसे ही संसार रूप वृक्ष को समाप्त करने के लिए उसके मूल का उच्छेत्र करना आवश्यक है ।"
पहले बतलायी गयी योग्यता, संसार रूपी वृक्ष की मूलभूत योग्यता है, वृत्तियां तरह-तरह के पत्ते हैं । यह परमतत्त्व अर्थात् यथार्थ वस्तु
१ भावनादित्रयाभ्यासाद् वर्णितो वृत्तिसंक्षयः ।
स चात्मकर्मसंयोगयोग्यतापगमोऽर्थतः ॥ योगबिन्दु, श्लोक ४०५ योगबिन्दु, श्लोक ३६६
२.
तथा दे० योगभेद द्वात्रिंशिका, श्लोक २५
३. स्थूलसूक्ष्मा यतश्चेष्टा आत्मनो वृत्तयो मताः ।
अन्य संयोगजाश्चैता योग्यतावीजमस्य तु । वही, श्लोक ४०६
४, पल्लवा पुनर्भावो न स्कन्धापगमेत रोः ।
स्यान्मूलापगमे यद्वत् तद्वत् भवतरोरपि । वही, श्लोक ४०८
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