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योगबिन्दु की विषय वस्तु इसलिए सम्यक् सम्बोध को प्राप्त करो।
सम्यक्त्व प्राप्त करके साधक धीरे-धीरे सम्यग्ज्ञान से अपने कर्मों का क्षय करता है जिससे अन्त में उसे मोक्ष मिलता है।
दुर्लभ मानवपर्याय को प्राप्त करके जो पांचों इन्द्रियों के विषयों में रमते है, वे मर्ख मनष्य दिव्यरत्न को भस्म कर, उसे जलाकर राख करते हैं। मनष्यभव में भी सबसे दुर्लभ तत्त्व, सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति और उनका आदर पूर्वक संरक्षण करना है।'
__ आत्मस्वरूप का चिन्तन करना तथा मानव जीवन और सम्यक सम्बोधि की दुर्लभता का अनुचिन्तन करना ही बोधिदुर्लभभावना हैं ।
इस प्रकार इन बारह भावनाओं या अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से चित्त समताभाव से युक्त होता है। इससे ही कषायों का उपशम होता है। सम्यक्त्व प्रकट होता है। वैराग्य में दृढ़ता आती है। साधक के द्वारा संसारिक दुःख-सुख, जन्म-मरण आदि का चिन्तन मनन करने से उसकी वृत्ति अन्तर्मुखी बन जाती है। इसीसे साधक के राग-द्वेष एवं मोह आदि क्लेश नष्ट हो जाते हैं और उसकी आत्मा परम विशद्धता को धारण कर लेती है । इस कारण भावनाओं को वैराग्य की जननी कहा गया है । इन भावनाओं का चिन्तन करना भाग्यशाली मुनियों एवं योगियों को मिलता है ।' ३. ध्यान
योगसाधना में ध्यान का अत्यन्त विशिष्ट स्थान है। मानव का १. मोक्ष: कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानतः स्मृतः । ज्ञानार्णव, सर्ग ३, श्लोक १३
तथा मिला 0-इओ विद्धं समाणस्स पुणो संबोधि दुल्लहा । सूत्रकृतांग १.१५.१८ अन्तो मुहुलमि तंपि फातियं हुज्जजेहि सम्मतं
तेसिं अवड्ढपुगलपरियठो चेव संसारो। धर्म संग्रह, अ० २.२१ की टीका २. इय दुलहं मणुतं लहिऊणं य जे रमंति विसएसु ।
ते लहिय दिब्ब-रयणं भूइ णिमित्त पजालंति ।। स्वामिकाति०, गा० ३०० ३. इय सबदुलहदुलहं दंसणणाणं तहा चरित्तच ।
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥ वहीं, गा० ३०१ ४. विस्तृत अध्ययन के लिए दे. - भावनायोग एक विश्लेषण
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