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________________ योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार साधक धर्म के स्वरूप और उसके फल का चिन्तन करता हुआ आत्मा को लोक और परलोक में सुखी बनाता है । (१२) बोधिदुर्लभ भावना इसमें जीवन और विवेक तथा धर्मबुद्धि की दुर्लभता पर विचार किया जाता है । मनुष्य भव की दुर्लभता परक वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि आत्मा को मनुष्य भव प्राप्त करना बड़ा हो दुर्लभ है क्योंकि कर्मविपाक बहुत सघन है जिसके कारण आत्मा एक-एक योनि में असंख्य बार चूमा है । अतः सत्त्व को मानवजन्म लाभ कर क्षणमात्र का प्रमाद किए बिना ही धर्माचरण करना चाहिए 1 दुल्लह खलु माणुसे भवे चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा व विवागकम्मुणो समयं गोयम ! मा पमाय ॥ 172 मानव जन्म पा जाने के बाद भी आत्मा को चार बातों की उपलब्धि होना अतीव दुर्लभ है । वे हैं - मानवता, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसतं सुई सद्धा सजमंमि य वोरियं ॥ १ सूत्रकृतांग में आता है कि मनुष्यो ! तुम धर्म तत्त्व को समझो, तुम क्यों नहीं समझते हो, कि सम्यक् बोध का प्राप्त होना बड़ा ही दुर्लभ है | ये बीती हुई रातें वापस नहीं आतीं और पुनः मानव जन्म मिलना भी अति दुर्लभ है - संबुज्झह, किन बुझह, संबोही खलु मेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ " १. उत्तराध्ययन सूत्र १०.४ २. वही, ३.१, तथा मिला० छःठणाई सव्वजीवाणं दुल्लभाई भवंति । माणुस भवे, आरियेरवेते जम्मं, सुकुले पच्चायाती । केवल पलतस्य सवणया, सपस्सवास हणया । सहियस वासम्मं कारण फासणया ॥ स्थानांगसूत्र, ६.४८५ गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे । स्वर्गापवर्गास्निदमागंभूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् । विष्णुपुराण २.३.२४ ३. सुत्रकृताँगसूत्र १.२.१.१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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